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महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ
इतना कहकर भगवान मोन हो गये । गौतम स्वामी मन ही मन विचार कर रहे थे - चन्द्रमा के स्थान पर साधु को समझना चाहिए । प्रमाद नहीं करना चाहिए । प्रमाद साधु रूपी चन्द्रमा के लिए राहु के समान है । जैसे चन्द्रमा पूर्ण होकर भी क्रमण हानि को प्राप्त होता-होता सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसी प्रकार गुणो से परिपूर्ण साधु भी कुशील जनो के ससर्ग आदि से चारित्र - हीन होता जाता है ओर अन्त में उसे बिलकुल ही खो बैठता है । किन्तु हीन गुणवाला होकर भी सुशील माधु का समर्ग आदि पाकर वह कमग पूर्ण गुणों वाला बन जाता है ।
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