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________________ जागे तभी सवेरा १६१ दोडा-दोडा वह गया अपने पिता से क्षमा माँगने और उन्हे बन्धनमुक्त करने । लेकिन होनी कुछ और थी । राजा ने अपने क्रूर पुत्र को तेजी से आता देखा तो सोचा- अब यह जाने मुझे और कैसी पीडा देने आ रहा है ? हत्या भी कर सकता है । जाने कितने कष्ट देकर मेरे प्राण ले । और राजा ने ताल पुट विप खाकर क्षण मात्र मे अपने प्राण त्याग दिए । पश्चात्ताप की अग्नि मे जलता हुआ कोणिक हाहाकार कर उठा । वन्दी घर की दीवारे हाहाकार कर उठी । राजमहल की मीनारे हाहाकार कर उठी । सारी नगरी हाहाकार कर उठी-पुत्र के अज्ञान और निष्ठुरता के कारण पिता को ऐसी दुखद मृत्यु पर सारी सृष्टि हाहाकार कर उठी । कोणिक सिर पीट कर रह गया । वह अपने महान् पिता से क्षमा तक न मॉंग सका । लेकिन उसका जीवन बदल गया । अपने विशाल साम्राज्य के ग्यारह भाग करके उसने अपने भाइयो मे वॉट दिए और पिता की मृत्यु के शोक को भुलाने के लिए वह मगध छोडकर अग देश की चम्पा नगरी मे जाकर रहने लगा । अव कोणिक क्रूर नही था, अहकारी नही था, स्वार्थी नही था । इन दुर्गुणों का स्थान मृदुता, नम्रता और विनय ने ले लिया था । एक वार भगवान महावीर जव चम्पा नगरी मे पधारे तो कोणिक उनके दर्शन करने व उपदेश सुनने गया । वडे उत्साह और समारोहपूर्वक गया । हृदय मे भक्ति-भाव को धारण किए हुए गया । उसने सुना, भगवान ने कहा "जल - बुद्बुद होता है न 1 एक क्षण मात्र मे ही फूटकर विलीन हो जाता है । यह जीवन भी वैसा ही है । "घास की नोक पर, कुशाग्र पर ओस की बूंद ठहरी होती है न । कितने समय के लिए ? पवन का एक हलका सा झोका आता है, और वह बूंद मिट्टी मे मिल जाती है । यह जीवन भी वैसा ही है ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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