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अव्यक्त आनन्दानुभूति
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“अच्छा, देखा जायगा, कभी आऊँगा तो जरूर मिलूंगा । पर यह तो वता कि तेरा नाम-धाम क्या है ? कैसे तेरा पता चलेगा ? क्या तू मुझे देख - कर पहचान लेगा ?”
राजा को उस भील की इन भोली बातो को सुनकर हँसी आ गई । उसकी निश्छलता, सरलता और सहज प्रेम की तुलना उसने नगरवासियो के छल-छद्म भरे व्यवहार से मन ही मन की और एक विपाद तथा लज्जा का अनुभव करते हुए कहा
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" अरे भाई । तुम्हे क्यो नही पहिचानूंगा ? तुझे इस जीवन में मैं कभी भूल ही नही सकता । तूने तो आज मेरी आँखे खोल दी । नगर मे आकर तू किसी से भी पूछ लेना कि राजा का महल कहाँ है ? बस मैं तुझे मिल जाऊँगा ।"
"अच्छा, लेकिन महल क्या होता है ? तू सीधे से अपना घर बता जिससे कि कुछ चक्कर न पडे । सीधा तेरे घर आ जाऊंगा ।
राजा को उस भील के भोलेपन पर फिर हँसी आ गई । उसने कहा“महल से मतलव मेरा घर । तू तो जैसा कहा वैसा पूछ लेना ।"
इसके बाद राजा अपने घोडे पर सवार होकर और अपने प्राणदाता भील से विदा लेकर नगर की ओर चल पडा । नगर का मार्ग उसने उस भील से पूछ लिया था । थोडी दूर जाने पर ही उसे अपने सैनिक भी मिल
गए ।
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कुछ दिन बाद वह भील किसी काम से शहर गया । उसने सोचाचलो, आया ही हूँ तो उस राजा से भी मिल लूं । बेचारा बार-बार कह गया था । यह सोच कर उसने किसी से पूछा - " राजा का घर कौनसा है ?"
लोगो को उसकी मूर्खता पर वडी हँसी आई । एक ने कहा - "अरे राजा का घर नही, महल कह ।"
“अरे वावा, महल ही सही, किन्तु वह है कहाँ यह बताओ न ।” लोगो ने राजमहल का मार्ग बता दिया । वह भील सीधा धडधडाता हुआ वहाँ पहुँच गया। उसने देखा कि राजा का घर तो बहुत वडा है, ऊँचा है,
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