SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं अनुमति मिल गई। दो वृद्ध ब्राह्मणो का रूप धर कर वे पहुंचे हस्तिनापुर, चक्रवर्ती की राजधानी मे । वे जव महल मे पहुँचे तव चक्रवर्ती स्नान कर रहे थे। द्वारपाल ने पूछा “कहिए विप्रवर । कैसे पधारना हुआ ?” "चक्रवर्ती के दर्शन हेतु ।' "कुछ प्रतीक्षा करे । अभी चक्रवर्ती स्नान कर रहे हैं !" "भाई, हम वृद्ध है। हमारी सॉस का क्या ठिकाना ? किस क्षण बुलावा आ जाय, कौन जानता है ? दूर से चलकर आए है। मरने से पहले एक बार चक्रवर्ती के दर्शन पा लेने की साध है । कृपा करो।” द्वारपाल ने चक्रवर्ती से आज्ञा प्राप्त करली। विप्र-वेशधारी देव पहुँचे चक्रवर्ती के समक्ष । उबटन लगाकर वे स्नान को चले ही थे। पूछा "कहिए विप्रवर । क्या आज्ञा है ?" "अहा आज जीवन धन्य हुआ। आपके रूप की प्रशंसा सुनी थी। देखने को आँखे तरस रही थी। आज आँखे भी ठण्डी हुईं। हृदय भी शीतल हुआ ।" चक्रवर्ती प्रसन्न हुए। अपने रूप की ऐसी प्रशसा सुनकर कोन प्रसन्न न होगा? होगा कोई मुनि जो न हो, चक्रवर्ती तो मुनि नही थे। कुछ गर्व से वे बोले “विप्रदेव । अभी क्या देखा, कुछ समय बाद जब वस्त्राभूपणो से सजधज कर राजसभा मे आऊँ तब देखना।" ब्राह्मण लौट गए। राजसभा मे चक्रवर्ती का सजाधजा रूप देखते ही बनता था। उनकी देह की कान्ति पर नेत्र ठहरते ही नही थे । चक्रवर्ती ने एक दृष्टि स्वय अपने ही शरीर पर डालते हुए ब्राह्मणो से पूछा “अब कहिए, महाराज | है न कोई रूप? कभी देखा या ऐसा रूप?" किन्तु चक्रवर्ती को वह उत्तर नही मिला जिसकी उन्हे आशा थी। उत्तर जो मिला वह था
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy