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आखिर सबकी एक गति
किसी जंगल के एक छोर पर सघन छायादार एक वृक्ष था। वह अत्यन्त विशाल तो या ही साथ ही अति प्राचीन भी था। युगो से अपनी नागाओ-प्रशालाओं को फैलाए बूढे तपस्वी की भाँति जटाजूट मे आवेष्टित हजारो पशु-पक्षियों का आश्रयदाता वनहर वह खडा था । उसका मूलअन्य उतना विशाल था कि उसमे से निकली चारो ओर फैली हुई सैकडो - प्यारो छोटी-बडी गाखाए ऊपर उठती हुई मानो आकाश चूम लेने को उत्सुक थी। गणित तुफानो और शझावातो को सहता हुआ भी वह अटिंग जार स्थिर ही रहा। अनगिनत हरे-भरे पत्तो से लहलहाती हुई उसकी डालिया हवा में झूमती रहती थी। वायु के एक हलके स्पर्श से ही हजारो पत्ते एक साथ नृत्य कर उठते थे ।
उस विशालकाय वृक्ष पर एक वृद्ध पीला पता भी था जो हवा के नावारण झोली मे ही आन्दोलित हो उठता था। वह अपने जीवन की अन्तिम बडियो की प्रतीक्षा कर रहा था । बन्धन शिथिल हो गये थे। का के मुखमे जाने के लिए नव वायु का एक झोका ही उसके लिए काफी था ।
नासिर वह बडी भी आ पहुंची। हवा के एक तीव्र शोके से उस पको उस महावृक्ष से अलग कर दिया। उड़ चला वह पवन पाथ। उसे इतना जवान ही कहा जा मुड़कर अपने साथियों की दे
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