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कर्मफल
किसी नगर मे एक कलाकार रहता था । काष्ठ - शिल्प मे वह प्रवीण था । अपने सधे हुए हाथो से वह जिस काष्ठ को भी छू देता वह देखते-देखते ही एक सुन्दर कलाकृति मे परिणत हो जाती । देखने वाले बस मुग्ध होकर देखते ही रह जाते ।
किन्तु प्राय कलाकारो के साथ एक दुर्भाग्य भी छाया की तरह साथसाथ चलता है कि उनकी कला का मूल्य जगत नही जानता और वे बेचारे कलाकार दरिद्रता मे ही अपने बहुमूल्य जीवन की इतिश्री कर संसार से विदा हो जाते है । शायद यह उक्ति सत्य ही है कि लक्ष्मी और सरस्वती का मेल बैठता ही नही ।
उस कलाकार की भी यही स्थिति थी । कला तो उसे भरपूर मिली थी. किन्तु उसका मूल्य नही मिल रहा था । वैसे तो कला का कोई मूल्य हो ही नही सकता, किन्तु फिर भी सुविधापूर्वक जीवन-यापन हो सके, इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है ।
वह बेचारा कलाकार भी अपनी काष्ठ की कलाकृतियों को खा कर तो जीवित रह नही सकता था । उदरपूर्ति हेतु उसे धन की आवश्यकता पडती ही थी. और वह धन उसे मिलता नही था ।
निदान, दुर्भाग्य का मारा, भूख की ज्वाला से हेरान, वह विवश कलाकार चोरी जैसे जघन्य कर्म मे प्रवृत्त हो गया ।
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