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________________ २७७ तप पूत जीवन प्रतिपादन किया। मुनि के प्रवचन से प्रभावित होकर उसने सयम धर्म गहण किया, किन्तु उसके मन मे जाति, रूप और ऐश्वर्य का गर्व बना रहा। सोमदेव मुनि मरकर वहाँ से देव बने और वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर मृत गगा नदी के तट पर बलकोट्ठ नामक हरिकेश का पुत्र 'वल' हुआ। उसका स्वभाव अत्यन्त क्रोधी था और पूर्वभव मे जाति आदि का अभिमान करने के कारण उसका रूप कौवे के समान काला था। __ एक वार वसन्तोत्सव चल रहा था। सभी उत्सव का आनन्द लूट रहे थे। किन्तु क्रोधी बल को कोई पूछ भी नही रहा था। वह एकान्त मे एकाकी खडा-खडा देख रहा था । उसने देखा एक भयकर विपधर वावी मे से बाहर निकला, लोगो ने उसे मार दिया। कुछ क्षणो के पश्चात् दूसरा निर्विप सर्प निकला, किन्तु उसे किसी ने छेडा भी नही। 'वल' के हृतत्री के तार झनझना उठे जिसमे विष है उसे कष्ट है और जो निर्विप है, उसे किसी भी प्रकार का खतरा नही है । चिन्तन करते हुए उन्हे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ, और वे साधु बन गये। मुनि हरिकेशवल श्रमण वनकर उत्कृष्ट तप का आचरण करने लगे । एक वार परिभ्रमण करते हुए वे वाराणसी आये और वहाँ पर 'तेदुक' उद्यान मे ठहरे । मुनि के उग्रतप के प्रभाव से 'गडीतिदुग' नामक एक यक्ष मुनि का परम भक्त हो गया। वह दिन-रात मुनि की सेवा मे रहने लगा। वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा बडी सुन्दर थी। उसे अपने रूप और यौवन पर बडा गर्व था। वह एक बार अपनी सहेलियो व दासियो के साथ उसी उद्यान मे आई और यक्ष की अर्चना करने के लिए ज्यो ही यक्षायतन मे पहुँची, वहाँ पर उसकी दृष्टि ध्यान मे तल्लीन मुनि के कृश व मलीन तन पर जा टिकी। उसने घृणा से मुनि के शरीर पर थूक दिया। यक्ष ने देखा इस पापिनी ने मुनि का भयकर अपमान किया है। जरा इसे चमत्कार दिखाना चाहिए । उसने भद्रा के शरीर मे प्रवेश किया। प्रवेश करते ही भद्रा पागलो की भॉति प्रताप करने लगी। दासियो ने बडी कठिनता से उसे गजमहल मे पहुँचाया। तात्रिक व यात्रिको ने अनेक उपचार किये, पर सफलता प्राप्त नहीं हुई । राजा चिन्तित हो उठा। यक्ष ने प्रकट होकर कहा-इस कुमारी ने उग्र तपस्वी सन्त की
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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