SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ मैं क्या माँगू ? - नगर मे धूमधाम थी। नए राजपुरोहित की शोभायात्रा निकल रही थी। पुराने पुरोहित काश्यप की विधवा पत्नी यशा इस शोभायात्रा को देखकर उदास थी और ऑसू उसकी आँखो से टप-टप गिर रहे थे। वह सोच रही थी-पति गये, सब कुछ चला गया। पुत्र ने माता के आँसू देखे और पूछा"माँ। क्या हुआ ? तू रोती क्यो है ? क्या तुझे कोई दु.ख है ?" माँ ने उत्तर दिया "बेटा । दु ख के सिवा अब और शेप रहा ही क्या है ? एक दिन तेरे पिता ही राजपुरोहित थे। राजा जितशत्रु उनका बडा आदर करता था। सारी प्रजा ही उनकी पूजा करती थी। आज उनकी मृत्यु के पश्चात् सव कुछ बदल गया है । सव कुछ जैसे उन्ही के साथ चला गया।" वालक से अपनी माता का दुख देखा नहीं गया। वह योग्य पिता का योग्य पुत्र था। वालक होते हुए भी एक दृढ निश्चय-भरे स्वर मे उसने पूछा "माँ | क्या मैं अपने पिता के समान ही नही बन सकता? क्या मै राजपुरोहित के पद पर नियुक्त नहीं हो सकता?" ___ माता का हृदय अपने पुत्र की इस शुभाकाक्षा से प्रफुल्लित हो उठा। वह वोली ___ "क्यो नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है। किन्तु तू पहले पढेलिखे तवन" १९३
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy