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________________ १६४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ "वस | इतनी सी बात ? तू रोना छोड, मै पढूंगा, माँ | ओर एक दिन अपने पिता के पद पर अवश्य बैलूंगा।" । बालक कपिल को पढने की धुन लग गई। किन्तु उसकी माता जानती थी कि कौशाम्बी मे रहकर कपिल पूरी तरह विद्याध्ययन नही कर सकेगा। वहाँ के पण्डित ईर्ष्यालु थे, स्वार्थी थे। राजपुरोहित काश्यप का पुत्र यदि पढलिखकर विद्वान हो गया तो अपने पिता के पद पर आसीन हो जायगा, इम भय से वे उसे पूरी शिक्षा नही देगे । अत यशा ने अपने बेटे को अपने पति के मित्र इन्द्रदत्त के पास श्रावस्ती भेज दिया। उपाध्याय इन्द्रदत्त बड़े विद्वान और सरल व्यक्ति थे। श्रावस्ती का बच्चा-बच्चा उन्हे जानता था। कपिल जब उनके पास पहुंचा तो उन्होने अपने दिवगत मित्र के पुत्र को आलिगन मे भर लिया और कहा-"अरे, तु तो मेरा ही पुत्र है । कोई अन्य नही । तू मुझे अपने पिता के समान ही समझना। कोई निन्ता न करना।' नगरी के धनपति शालिभद्र के यहाँ कपिल के आवास की व्यवस्था हो गई और उसका विद्याध्ययन आरम्म हो गया । धीरे-धीरे कपिल युवक हो गया। किन्तु जीवन के उसी विकट सकटकाल में कपिल चूत गया । श्रेष्ठि शालिभद्र की एक सुन्दरी दासी जो कि कपिल की मेवा किया करती थी, उससे कपिल को प्रेम हो गया । प्रेम अथा होता ही है। कपिल भी उस आंधी मे ऐसा उडा कि वह अब विद्याध्ययन भी भूल गया और उपाध्याय के पास गुरुकुल मे जाना भी उसने बहुत कम कर दिया। उपाध्याय ने उसे समझाया, डॉटा-फटकारा, बुरा-भता कहा, अपनी माता को दिये हुए वचन की याद दिलाई, दिवगत पिता के गोरव का स्मरण गा-किन्तु प्रेमी के गले कुछ न उतग । वह तो पागत होकर दामी ती हावा मात्र बनकर रह गया। र बार नगर में वन-महोत्सव की तैयारियां हो रही थी। युवा वतिया ना रहे थे। कपिल की प्रेमिका दामी ने उस समर पर जाने प्रेनी ने कहा नगर की नारी नन्दरिया मजबन रही है। तुम यदि मेरे fir वान वत्र नही तानरते तो मावारण ना वस्त्रहीनाकर दो। रला.
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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