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________________ २५४ महानोर युग की प्रतिनिधि कथाएँ की उसने नियम बना लिया था कि प्रतिदिन छह पुरुपो ओर एक स्त्री हत्या करके ही विश्राम लूंगा और ऐसा ही वह करता भी था। उस दुर्घटना का ऐसा भयानक प्रभाव बेचारे उस सीधे-साधे मानी पर पड़ा था। नगरी में हाहाकार मच गया । विनाश का ताण्डव होने लगा । प्रतिदिन छह पुरुषो ओर एक स्त्री की हत्या कोई साधारण सी बात तो है नहीं । राजा श्रेणिक भी चिन्तित हुआ । प्रजा का पालन करने वाले राजा ने अपने सैनिक भेजकर अर्जुन को रोकना चाहा, किन्तु अर्जुन की यक्ष शक्ति के सामने किसी की कुछ न चली। वह तो मृत्यु का महादूत बना हुआ था । मौन ही जिसकी आई हो, वही उसके सामने जाग, फिर चाहे वह कोई भी हो । नगरद्वार बन्द कर दिये गये। लोगो का नगर से बाहर निकलना ही बन्द हो गया । नगर के बाहर चारो ओर निर्जन, सुनसान हो गया मृत्यु का मान्नाटा छा गया। उसी समय भगवान महावीर राजगृही नगरी मे पधार कर बाहर गुणनील उद्यान में ठहरे। उनके आगमन का समाचार तो किसी प्रकार नगरवासियों को मिल गया, और उनके हृदय भगवान के चरणो मे शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने के लिए बेचैन हो उठे, किन्तु उपाय क्या ? नगरी ओर गुणनील उद्यान के बीच अर्जुनमाली के रूप मे साक्षात् मृत्यु विचरण कर रही थी । कौन जा सकता था उस मृत्यु के खुले हुए मुख मे ? हताश लोगो ने प्रभु की बन्दना घर बैठे ही करके सन्तोष किया । किन्तु उस नगरी मे एक ऐसा भी धर्मवीर युवक था जो प्रभु के आगमन का संवाद सुनकर रुक न सका और चल पड़ा मृत्यु को जीतकर अमृत का वरदान पाने । वह तेजस्वी और निष्ठावान युवक था - सुदर्शन | उसे सभी ने रोकना चाहा। माता-पिता ने बन्धुवान्धवों ने, उाटमित्रो ने किन्तु वह किसी के रोके नहीं था । उसका निश्चय अटल था, और उनका एक ही उत्तर था - 'प्रभु द्वार पर आकर ठहरे हो ओर में भीतर बन्द रह यह सम्भव नहीं ।' " अपनी जनव आत्मा में जवन्त भक्ति लिए वह युवर नगर से बाहर मानेसुन को बाहर जाने देना और विकरान अट्टहास चत्र पहा ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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