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________________ २५३ जहाँ अभयकुमार, सुदर्शन एव पूर्णिया श्रावक जैसे उत्तम पुरुष निवास करते थे, वही कुछ धूर्त, लम्पट और दुष्ट व्यक्ति भी थे । 1 चलो मेरे साथ दुष्टो की एक तो पूरी टोली ही थी । उसमे छह व्यक्ति थे । स्थानस्थान पर उत्पात मचाते रहना और सभ्य तथा भले नागरिको को पीडा पहुँचाना इस दुष्ट ललितागोष्ठी का दैनिक कार्यक्रम था । एक दिन यह टोली अर्जुनमाली के बगीचे में जा पहुंची। वहाँ अर्जुन अपनी पत्नी के साथ पुप्प चयन कर रहा था । उसकी पत्नी बन्धुमती के सौन्दर्य को देखकर वह टोली वासना से पीडित हो उठी । उन्होने बन्धुमती के साथ दुराचार करने का निश्चय किया और अवसर की ताक मे यक्षमन्दिर मे आकर वे लोग छिप गये । कुछ समय बाद जव अर्जुनमाली यक्ष की पूजा करने मन्दिर मे आया और अपना सिर झुकाकर वह यक्ष को प्रणाम करने लगा, तब उन दुष्टो ने कूदकर अर्जुन को दबोच लिया और उसे रस्सियो से बाँधकर उसी के सामने उसकी पत्नी के साथ दुराचार करने लगे । अर्जुनमाली की आँखो मे खून उतर आया । क्रोधित होकर वह बन्धन मुक्त होने के लिए कसमसाने लगा, किन्तु वन्धन कठोर थे । वे नहीं टूटे | तव अर्जुनमाली को अपने कुलदेवता यक्ष का स्मरण हुआ और वह उससे मन ही मन कहने लगा- " मैंने तेरी पूजा इसीलिए की थी कि तू मुझे यह दुर्दिन दिखाए ? धिक्कार है तेरे यक्षत्व पर, अन्यथा मुझे शक्ति दे कि मैं इन दुप्टो को इनके पाप का दण्ड दे सकूं ।" हृदय की गहरी भावना का प्रभाव समझिए अथवा सच्ची श्रद्धा की शक्ति, किन्तु उसी क्षण वह यक्ष अपने भक्त की देह मे प्रविष्ट हो गया तड तड तड' करते हुए सारे वन्धन टूट गये । अर्जुनमाली के हाथों मे यक्ष का वह विकराल मुद्गर आ गया और एक ही बार मे उसने उन छहो लम्पटो तथा बन्धुमती का काम तमाम कर दिया । किन्तु इसके पश्चात् भी अर्जुनमाली का क्रोध शान्त नही हुआ । यक्ष उसकी देह मे समाया हुआ था और वह उससे आविष्ट था । अब तो अर्जुनमाली के सामने जो भी जीवित मनुष्य पड जाता वही काल का ग्रास बन जाता । साक्षात् यमराज की भाँति अर्जुनमाली चारो ओर मृत्यु का ताण्डव नृत्य करता हुआ घूमने लगा ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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