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करता हुआ अपनी भीम-गदा लिए वह उसकी ओर दौड पडा-बहुत दिन बाद आज उसे शिकार जो मिला था।
लेकिन सुदर्शन के रूप में अर्जुनमाली के लिए एक आश्चर्य ही प्रगट हुआ था अथवा कहा जाय कि उसकी जीवन-दिशा का एक नया मोड, एक नया स्वर्ण-अवसर ही उपस्थित हुआ था।
किन्तु अर्जुनमाली को इसका ज्ञान उस समय तक नही था। वह तो अपने शिकार की ओर ही लपका था, उसके रक्त से अपनी मृत्यु-पिपासा को शान्त करने हेतु । अपनी विशाल, लौह-गदा उसने हवा मे तहराई और सुदर्शन के मस्तक पर उसने भीपण प्रहार करना चाहा । किन्तु उसका हाथ आकाश मे उठा ही रह गया · ·
सुदर्शन ने जब अर्जुनमाली को अपनी ओर बढते देखा तब उसने निर्भय रहकर सथारा के रूप में सागारिक प्रतिमा धारण कर ली थी। उसका हृदय शान्त था और ध्यान अविचल ।
उसी का परिणाम था कि अर्जुन के शरीर मे स्थित यक्ष का तेज उस अभय धर्ममूर्ति के समक्ष समाप्त हो गया था और वह उसे त्याग कर चला गया था।
अपनी सामान्य स्थिति मे आकर अर्जुनमाली सुदर्शन के चरणो मे गिर गया था। होश आने पर उसने देखा कि उसके सामने मनुष्य के रूप मे एक देवता खडा था-ध्यानमग्न, स्थिर, निर्भय, शान्त, प्रेम की साक्षात् मानवमूर्ति ।
सुदर्शन का ध्यान टूटा । अर्जुन ने विनय की-'देवता । तुमने मुझे उवार लिया । मै हिंसा और प्रतिशोध के दावानल मे जल रहा था। तुमने मुझे शान्ति और प्रेम के सरोवर मे स्नान कराकर नया जीवन प्रदान किया' ।
किन्तु अब मेरे पापो का क्या प्रायश्चित्त होगा? मैने कितने निरपराध प्राणियो की निर्मम हत्या कर डाली है ? मेरी आत्मा को शान्ति कसे प्राप्त होगी? मुझे शरण कहाँ मिलेगी?'
__ मन्द, मधुर, दयापूर्ण मुस्कान के साथ सुदर्शन ने अर्जुन को उठाया और कहा
'चलो मेरे माय, अर्जुन । दु ख न करो। जो हुआ सो हो गया।