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________________ २३९ आग्रह छोडो मणि है । एक ही मणि से तुम्हारा जन्म-भर का दारिद्र्य दूर हो जायेगा । अत अब तो लोहे का गट्ठर फेक दो और मन चाहे जितने वजन व लो ।” ऐसा कहकर एक बार फिर उस हठी व्यापारी को समझाने प्रयास उसके साथियो ने किया । उत्तर मे पुन उस व्यापारी ने कहा - "एक बार पह दिया कि मे अपनी दूर से लाई वस्तु को किसी भी मूल्य पर छोड़ने को तैयार नहीं है । तुम्हारे समान लोभी नही है । क्षणिक बुद्धि के बल पर गंद उधर लुढकना मुझे कतई पसन्द नहीं है । वारवारमुने मत छी । तुम्हें जंचे वैसा करो !" फिर भी साथियों से न रहा गया। वे जानते थे परिणाम क्या होगा ? उसके हित की बात सोचते हुए वे पुन नागहने लगे - "भाई । तुम अपना लोहे का गट्ठर भले ही मोह के वशीभूत होन त्याग सको, किन्तु अधिक नही तो केवल एक ही 'मणि' ले तो लग जीवन भर दरिद्रता की चक्की में पिसते हुए अपनी नादानी पर हाव भा कर पछताते रहोगे ।" साथियो के इस आग्रह पर वह हठी व्यापारी अब आगबबूला हो उठा और कहने लगा- "तुम लोग नाहक मेरा पीछा पकड रहे हो, म दरिद्र ही रह जाऊँगा तो तुम धन्ना सेठो की ड्योढी पर भीख माँगने नही आऊँगा । जाओ अपना-अपना भाग्य वदलो ।" साथियो ने देखा कि यह किसी भी तरह अपना हठ छोड़ने को तैयार नही है तो आपस मे कहने लगे-- "भाई जाने भी दो । नाहक इसे क्यो तग कर रहे हो । जब इसके भाग्य मे फूटी कौडी ही नही है तो हम सब मिलकर इसके भाग्य मे कंगन कैसे चढ़ा सकते है ?" वज्ररत्न मणि को लेकर कुछ दिनो के बाद वे सभी व्यापारी अपने जनपद को लौट आये। एक-एक ही मणि ने उन सब के भाग्य को बदल दिया । वे मालामाल हो गये। सबकी अपनी-अपनी गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ खडी हो गईं। नौकर-चाकर, हाथी-घोड़े रथ आदि सभी उनके महलो मे खडे हो गये । सारी सुख-सुविधा से वे भरपूर हो गये । जो अभागा व्यापारी लोहे का गट्ठर लाद कर इतनी दूर लाया, उसे वेचने पर उसे जो कुछ भी थोडा मूल्य मिला, उससे उसने दो-चार दिनो के
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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