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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ
खाने-पीने का सामान खरीद लिया । कुछ पैसे उसमे से बचा कर मामूली मोदा खरीद कर वह नगर मे फेरी करने लगा । फेरी से प्राप्त थोड़े से द्रव्य से किसी प्रकार अपनी आजीविका चलाता हुआ कष्टमय जीवन व्यतीत करने लगा।
एक दिन फेरी करता हुआ वह एक महल के निकट जब पहुचा तो महल के स्वामी ने इस फेरी वाले को पहचान लिया। उसका मन पुरानी स्मृतियो मे डूबने लगा--"यह वही अभागा व्यापारी है जिसे हम लोगो ने समझाने की पूरी कोशिश की थी, किन्तु भाग्य बडा प्रवल होता है । अपनी हठधर्मी के कारण ही इसकी यह दुर्दशा हो रही है ।" उसने तत्काल परिचारक को भेजकर उसे महलो मे बुलवाया।
फेरी वाला बहुत प्रसन्न हुआ, सोचने लगा-आज अच्छे मुहूर्त मे घर से निकला हूँ, एक ही स्थान पर सारा माल विक जायेगा। महल मे पहुंचते ही सेठ ने उसकी ओर देखा और अनुभव किया कि यह तो नाक्षात् दरिद्रता की मूर्ति है, फटे-पुराने चिथडो मे लिपटा उसका कृशशरीर अपनी दयनीय स्थिति की कथा स्वय कह रहा था।
सेठ ने पूछा--"क्यो भाई | इसके पहले मुझे कभी देखा है ?"
फेरी वाले ने बडी दीनता से उत्तर दिया--"नही मालिक | आज पहली बार ही इस महल मे आया हूँ और आपके दर्शन कर रहा हूँ।"
मेठ ने फिर कहा--"एक बार याद तो करो, शायद हमारी तुम्हारी मुलाकात कही हुई हो?"
फेरी वाले ने जब सेठ की सहज गभीर बात सुनी तो वह बडे गोर में उनकी ओर देखने लगा। तत्क्षण ही उसकी पुगनी म्मृतिया उभर कर नामने आ गईं "अरे, यह तो उन्ही व्यापारियो मे मे एक है, जिन्होंने व्यापार ती इच्छा से दवी प्रदेशो की यात्रा की थी। इन लोगो ने मार्ग में मुझे बहन नमझाया भी था कि लोहे का गट्ठर त्यागकर चादी, मोना, रलवजन ले लो, लेकिन मेरी हठधर्मी ने दन मबकी बातो का पूरी तरह निकार दिया था। आज ये मय वचरत्न के कारण ही विपत वैभवशाली कार बनाटा हो गये है, जबकि म दर-दर की ठोकरे पा रहा हूँ।" की बात को मने दुगग्रह पर इतना पश्चाताप मार दुग हुन
पार पर्व पर गिर पटा और बेहोश हो गया।