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________________ ५२ कौड़ी को तो खूब सम्हाला किसी समय एक वणिक विदेश से एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ कमाकर स्वदेश लौट रहा था। रास्ते मे कुछ और लोग मिल गये। उन्ही साथियो के साथ वह लम्बा मार्ग तय करने लगा । वणिक ने मार्ग मे व्यय करने के लिए कुछ रुपयो को भुनवा कर अस्सी काकिणी साथ रख ली। प्रतिदिन एक-एक काकिणी खर्च करते-करते अन्त मे एक काकिणी शेप रही, किन्तु उसे वह पिछले गाँव मे जहाँ इससे पूर्व वह ठहरा था, भूल आया । मार्ग मे कुछ दूर चले आने के बाद एकाएक उसे याद आया कि वह एक काकिणी कही भूल आया है। साथ वालो से बोला-- "भाई । एक बडी विचित्र बात हो गई, मैं एक काकिणी पीछे कही भूल आया हूँ। अभी वापस जाकर उसे ढूंढकर लाता हूँ।" साथियो ने कहा -- “जाने भी दो, एक काकिणी कौन-सी बडी बात है ? इतनी दूर जाना, ढूँढना, मिले या न मिले, व्यर्थ मे एक दिन का समय नष्ट होगा।" इस प्रकार साथियो ने उसे बहुत समझाया, किन्तु वह न माना। बोला "जानते हो धनोपार्जन मे कितनी कठिनाई होती हे ? यो ही सरनता से एक काकिणी छोड दू, यह मेरे लिए सभव नही है। अभी जाता है और उसे ढूंढ कर ले आता हूँ। मैं इतना मुर्ख नही हू कि गाँठ से जाए और पता भी न लगाऊँ कि वह कहाँ गई ?" मायियो ने उनी जिद्द के आगे अधिक विवाद करना उचित न ननझा । हारकर वे बोले- अच्छा भाई हम तो चलते है। अगले गाँव में तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे । लौटने की शीघ्रता करना।" माथी आगे निकल गये। वह वणिक वापम पिछले गाव की ओर २१६
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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