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कौडी को तो खूब सम्हाला
चल पडा । मार्ग मे चलते हुए उसने विचार किया -- साथ की हजार स्वर्ण मुद्राएँ कहाँ-कहाँ बाँधे फिरूँगा ? इतना बोझ उतनी दूर ले जाना आवश्यक नही है । आखिर तो यही लौटना ही है । जंगल के किसी एकान्त स्थान पर इसे छिपाकर रख दूँ, लौटकर पुन ले लूंगा । यह सोचकर उसने इधर-उधर देखा, कोई दिखाई नही दिया । निश्चित होकर एक वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर मुद्राएँ उसमे छिपा दी और ऊपर कुछ चिह्न बना कर वह गाँव की ओर चल पडा ।
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कोई वस्तु गड्ढे में दबाते दूर खडे एक व्यक्ति ने उसे देख लिया था । उसने जब देखा कि वणिक चला गया है तो वह उस स्थान पर गया और गड्ढे पर की मिट्टी हटाकर देखा -- स्वर्णमुद्राएँ चमचमा रही है । उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा, खुशी से वह उछल पड़ा – “धन्य है भगवान तू सबका रखवाला है । आज इतनी सारी स्वर्ण मुद्राएँ तूने मेरे लिए ही यहाँ रखवाई है।” इस प्रकार वार वार भगवान को धन्यवाद देता वह सारी मुद्राओ को समेट कर चलता बना ।
अभागा वणिक उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पहले ठहरा था । काकिणी को इधर-उधर देखा, लोगो से पूछताछ की, पर वह नही मिली । निराश होकर वह लौट पडा ।
जब वह लौटकर वृक्ष के पास स्वर्ण मुद्राएँ लेने आया तो गड्ढा खुदा हुआ देखा । उसके पैरो के नीचे से धरती सरक गई । स्वर्ण मुद्राएँ गायब थी । उसकी आँखो के आगे अँधेरा छा गया । सिर पीट-पाट कर वह रोने लगा - "हाय | मेरी जीवन भर की गाढी कमाई व्यर्थ ही चली गई, अव मैं कही का न रहा । कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँगा ? मेरे बाल-बच्चे क्या खायेगे इस प्रकार अपने को कोसता रोता हुआ वह साथियो के
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पास आया ।
सभी साथी लोग उसे उसकी मूर्खता पर धिक्कारने लगे । स्वर्णमुद्राओ के गायब हो जाने की गहन चिन्ता मे वह कृशकाय, दीन-हीन होकर दर-दर मारा-मारा फिरने लगा। एक काकिणी के लोभ का सवरण न कर पाने वाला हजार मुद्राओ से हाथ धो बैठा। सच है लोभ जब अपनी सीमा का अतिक्रमण करने लगता है तो दुख को अपने पैर जमाने के लिए पूरी सुविधा हो जाती है । लोभी व्यक्ति स्वयं ही अपने विनाश का कारण बनता है ।