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५३ साधु और चन्द्रमा
आज राजगृही नगरी मे बडी चहल-पहल थी। चारो ओर नगर-जन वडे उत्साह से किसी उत्सव की तैयारी में लगे हुए-से प्रतीत होते थे। उनके प्रसन्न-मुख को देखकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे उन सबको आज कोई बहुत बडी निधि प्राप्त होने को है । एक-दूसरे से लोग मिलते और उमंग से भरकर पूछते
“अरे भाई ! किधर चले ? अब तक तैयार नही हुए क्या? भगवान के दर्शन करने नही चलोगे क्या ?"
"खूब ' तुम्हे सारी राजगृही नगरी मे क्या मै ही एक मूर्ख दिखाई दिया हूँ जो कि मुझसे यह पूछते हो कि क्या मैं भगवान के दर्शन करने नही जाऊँगा? अरे, घर पर गगा आये तो क्या कोई हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा ?"
"यही तो, यही तो । मै भी यही तो कह कि जन्म-जन्म के पुण्यो के फलस्वम्प तो ऐसा सौभाग्य प्राप्त होता हे . "
"हाँ भई, बस अब चलते है । देर हो रही है।"
इसी प्रकार की उत्साह भरी बाते उस विशाल राजगृही नगरी के नमस्त नागरिको के मुख से सुनाई पड़ती थी। वे सब भाग-दौडकर भगवान के दर्शन के लिए जाने की तैयारी में लगे थे।
यही हाल नाग्यिो का भी था। उन्हे किमी भी स्थान पर जाने के लिए तैयार होने में बहा ममय लगता है। किन्तु आज तो मानो वे पुरुपो से भी होड़ ले रही थी। पुष नैयार हो चुके हो या नहीं, किन्तु नारिया आन
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