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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ धर्म का पालन करते हुए जीव क्रमश कर्मों का क्षय करता हुआ मुक्ति प्राप्त करता है।"
धर्म का मर्म इसी प्रकार कुछ विस्तारपूर्वक सुदर्शन को समझाकर मुनिवर ने उससे पूछा
"तुम्हारा धर्म क्या है, सुदर्शन ?"
"हमारा धर्म तो शुचिमूलक है। तीर्थस्थान तथा जलाभिषेक से शुचि होती है।
“तुम भ्रम मे हो । इस प्रकार के जलाभिषेक आदि मे तो केवल शरीर की ही शुद्धि हो सकती है। किन्तु, सुदर्शन, आत्मा पर जो मैल चढा है, क्रोध-काम-लोभ-मोह आदि, वह कैसे दूर होगी? स्नानादि मात्र से तो वह दूर नही हो सकती । उसे दूर करने का तो मात्र यही उपाय हे कि जीव हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, मोह, मान, क्रोध इत्यादि से दूर रहे। अरे, सुदर्शन, तुम तो विचारवान हो, तनिक विचार करो कि क्या ये कपाय जलाभिषेक आदि से दूर हो सकते है ?"
सुदर्शन ने विचार किया और उसे मुनिवर के कथन की सत्यता को समझने मे विलम्ब नहीं हुआ। उसने प्रसन्नतापूर्वक जैनधर्म को स्वीकार कर लिया।
कुछ समय बाद वे सन्यासी जिनसे कि सुदर्शन ने शुचिधर्म लिया था, वहाँ आये और यह जानकर कि सुदर्शन ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया है, वे मुनिवर से वाद-विवाद करने जा पहुंचे । उस वाद-विवाद का परिणाम यह हुआ कि मुनिवर के ज्ञान और उनके सत्य धर्म से सन्यासी अत्यन्त प्रभावित हो गये । उनका हृदय मुनिवर के प्रति भक्तिभाव मे भर उठा। वे आग्रही व्यक्ति नहीं थे । सत्य के ही अन्वेषी थे । अत उन्होने याचना की
मुनिवर | में अन्धकार मे या । आपने मेरे अज्ञान के अन्धकार को हटा दिया । अब आप मझे जैनधर्म में दीक्षित करने की कृपा भी कीजिए।"
मनिवर को क्या आपत्ति हो सकती थी? प्रत्येक प्राणी को मन्मार्ग दिवाना ही उन्हे इप्ट था। जत उम सन्यामी को उनके शिष्यो महित जैनधर्म की दीक्षा प्रदान करदी गई ।
दन प्रसार कुछ काल तक ज्ञान, ध्यान और तपश्चरण में अपने