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दृष्टिदोष
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यह कि शीघ्र ही वृद्धावस्था आकर मेरे शरीर को जीर्ण कर देगी तथा मेरे यौवन को निगल जायगी तथा दूसरा यह कि काल किसी भी पल आकर मुझे निगल जायगा | कृपया इन कष्टो से मुझे बचा लीजिए, आपकी शक्ति तो अपरम्पार है ।"
सुनने वाले स्तब्ध रह गये । श्रीकृष्ण कुमार के चातुर्य और उसके कथन के सत्य मर्म को समझकर बोले-
“कुमार तुम्हारा कल्याण हो । मेरे पास तो क्या, इस सृष्टि मे किसी के पास भी ऐसी शक्ति नही है जो तुम्हारे इन कष्टो को दूर कर सके । तुम ठीक ही कहते हो । अत तुम्हे आज्ञा है, दीक्षा की तैयारी तुम कर सकते हो ।"
स्वय सम्राट श्रीकृष्ण ने थावच्चाकुमार की भगवती दीक्षा की तैयारी की और वे दीक्षित हो गये ।
भगवान की कृपा से सयम की आराधना अविचलित भाव से करते हुए शीघ्र ही थावच्चाकुमार ने चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया ।
एक वार मुनि थावच्चाकुमार भगवान से आज्ञा लेकर अपने शिष्यो सहित विचार करते हुए सेलगपुर नामक नगर के सुभूमि नामक उद्यान मे आकर ठहरे । वहाँ के राजा ने उनका उपदेश सुना और उस उपदेश से प्रभावित होकर उसके श्रावक-धर्म के व्रत ग्रहण कर लिये ।
इसी प्रकार विचरण करते-करते मुनि सौगन्धिक नगर मे जब पहुँचे तो अन्य लोगो के साथ वहाँ का नगर सेठ सुदर्शन भी मुनि के उपदेशामृत का पान करने आया । यद्यपि वह साख्य मत को स्वीकार कर चुका था, किन्तु फिर भी वह सत्यान्वेषी था और किसी एक मतवाद से ही बँध जाने वाला व्यक्ति नही था । उसने मुनिवर का उपदेश सुना और अपनी कतिपय शकाओ के निवारण हेतु उसने मुनिवर से विनयपूर्वक प्रश्न किया
"मुनिवर | आपका मूल धर्म क्या है
"सुदर्शन | हमारा मूल धर्म विनय है । यह विनय दो प्रकार का होता है-एक, श्रावक का विनय और दूसरा, साधु का विनय । श्रावक स्थूल रूप से एक देश से हिंसा आदि पापो का त्याग करता है, जबकि माधु मनवचन काया से हिंसा नही करते, असत्य भाषण नही करते, किसी का द्रव्य हरण नही करते और परिग्रह नहीं रखते। इन दोनो प्रकार के विनयमुल
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