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________________ २४६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ उनके जन्म-जन्मान्तरो के पाप धुल गये हो ओर उनके पवित्र पुण्यो का उदय हो आया हो। जब प्रभु पधारे तो लोक उनके दर्शनो के लिए समुद्र की भाँति उमड पडा । इस कथा का नायक थावच्चाकुमार भी भगवान की सेवा में पहुंचा। श्रीकृष्ण भगवान नेमिनाथ के सासारिक अवस्था के भाई थे। वे तो आनन्द से झूम ही उठे और समाचार सुनते ही भगवान के समीप पहुंचे। ___भगवान का उपदेश सुनकर थावच्चाकुमार के मन मे ससार से विरक्ति उत्पन्न हो गई । प्रभु ने बताया था कि आत्मा का सच्चा म्बत्प क्या है ? क्यो वह ससार के बन्धनो मे भटक जाता है और भव-भ्रमण करता है ? इस भव-भ्रमण से सदा के लिए मुक्त होने का मार्ग कोन-सा है ? अस्तु, थावच्चाकुमार ने जब अपनी माता से मुनि दीक्षा लेने के लिए आज्ञा मांगी तब वह बडी दुखी हो गई । अपने लाडले बेटे को सयम के उस कठोर मार्ग पर जाने से उसने बहुत रोका। किन्तु यावच्चाकुमार का निश्चय तो अटल था । वह धर्म के तत्त्व को तथा आत्मा के सत्य को जान चुका था। श्रीकृष्ण ने भी कुमार को समझाते हुए कहा "कुमार | अभी तुम्हारे दीक्षित होने का समय नहीं आया। अभी तुम युवक हो । अपनी माता के इकलौते वेटे हो। समय आने पर दीक्षा लेना। हाँ, यदि तुम्हे कोई कप्ट हो तो वह मुझे बताओ, मै तुम्हारा कप्ट दूर करूंगा।" तीन खण्ड के अधिपति सम्राट श्रीकृष्ण के लिए कौनसी बात अशाच थी ? वे सभी कुछ कर सकते थे । सभी के कष्ट दूर कर सकते थे। उनकी बात सुनकर कुमार ने बडी नम्रता के माथ कहा 'महाराज | आप ममर्य है । कृपालु है । और मझे विश्वास है कि आप मबके कष्ट दूर कर सकते है। मुझे भी कष्ट है, एक नहीं, मुझे दो कष्ट ह । यदि आप उन्हे दूर करदे तो मै बचन देता हूँ कि में दीक्षा नहीं लगा।" बीण को आशा बॅधी । पचा बोनो, में तुम्हारे लिए क्या समकता हूँ?" कुमार ने कहा- 'मम्राट् । मने रहा कि मुझे दो काट ह। एक तो
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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