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दृष्टिदोष
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सयमी जीवन को निरत रखते हुए अन्त मे पुण्डरीक पर्वत पर समाधि धारग कर अष्ट कर्मों का नाश कर थावच्चा मुनि ने मोक्ष प्राप्त किया ।
वे सन्यासी अव सुक मुनि के नाम से पुकारे जाने लगे थे। एक बार विचरण करते हुए वे सेलगपुर पधारे । वहाँ के राजा सेलग के हृदय पर सुक मुनि के उपदेश का ऐसा प्रभाव पडा कि उसने तुरन्त दीक्षा लेने का निश्चय किया । उसके मन्त्रियो ने भी इस शुभ कार्य मे रोक लगाने का कोई प्रयत्न नही किया । अतः राजा ने अपने पुत्र मण्डूर को बुलाकर कहा
" पुत्र ! मै तो अब इस सासारिक जीवन से विदा ले रहा हूँ । तुम सुयोग्य हो । राज्य के उत्तरदायित्व को अब तुम सम्हालना और न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना। मैं तो अब एक दूसरे ही माम्राज्य मे जात्मा के शत्रुओ से युद्ध करके उस युद्ध मे विजय प्राप्त करने जा रहा हूँ ।"
राजा सलग दीक्षित होकर साधना करने लगे । ज्ञानार्जन तथा कठोर तपश्चरण मे वे लीन हो गये । इस तपस्या मे वे ऐसे खो गये कि उन्हें न तो खाने-पीने की ही कोई सुध रही और न सोने-बैठने की ही । प्रतिपल वे तो ज्ञान-ध्यान मे ही डूबे रहते ।
कठोर तपस्या के कारण शीघ्र ही उन्होने अपनी समस्त इन्द्रियो को वश मे कर लिया । किन्तु राजसुख मे पला हुआ उनका शरीर एक साथ इतनी कठोर तपस्या को सहन नही कर सका अथवा पूर्व कर्मों का ही उदय कहिए कि उन्हे पित्त ज्वर ने ग्रस लिया और खुजली रोग हो गया ।
रोग हो तो हो । पीडा है तो होती रहे । ज्ञानी और तपस्वी व्यक्ति इनकी चिन्ता ही कहाँ करता है ? सेलग मुनि भी अपने शरीर की ओर से उपेक्षा भाव धारण किये रहे और विचरण करते-करते एक वार सेलग नगरी मे ही पधारे ।
जनता उनके दर्शन के लिए उमड पडी । राजा मण्डूक भी गया । सभा विसर्जित होने के बाद मुनि के रोग-पीडित शरीर को देखकर राजा ने विनय की-
"मुनिवर ! शरीर धर्म का एक साधन है । आपका शरीर रोग से पीडित है | कृपा कर नगर मे पधारिये । कुछ समय उपचार ग्रहण कर स्वस्थ होने पर पुन विचरण करिये । हमे सेवा का इतना अवसर तो प्रदान करिये ।"