SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ mumerama - - - - - --- - बदला १४५ अपने वर का बदला लिए विना, इसका शीप काटे बिना इसे छोड दूं ?" "हॉ, बेटा | छोड दे । मैं कहती हैं, इसे छोड दे । क्षमा कर दे । तु अभी नही समझेगा, लेकिन मेरे शरीर मे एक मॉ का हृदय हे । मै समझ सकती हूँ । जो होना था वह हो गया। गया हुआ समय ओर गया हुआ जीव फिर तो लौटता नही । अब इसे मारने से क्या मिलेगा ? तेरा भाई तो अव लौटकर आएगा नहीं ..." ___ "लेकिन माँ | वेर का वदला. . . . .।" "वैर की यह परम्परा ही नष्ट कर देनी है । अन्यथा इसका कही अन्त ही नही होगा । इसी प्रकार हत्याएं होती रहेगी। इसी प्रकार बालक अनाथ होते रहेगे, कुलवधुएं विधवा होती रहेगी, माताएँ पुत्रविहीना होती रहेगी । नही बेटा | छोड दे इसे । वदला पूरा हो चुका।" __'बदला पूरा हो चुका ?'-वात कुछ क्षत्रिय के समझ मे नही बैठी। हतबुद्धि होकर माँ की ओर देखता रह गया। किन्तु उसकी तलवार स्वत ही धीरे-धीरे म्यान मे चली गई। सध्या को वीर क्षवियाणी ने अपने एक नही, दो बेटो को स्नेहपूर्वक भोजन कराया और फिर उनमे से एक को विदा करते हुए कहा ___ "बेटा । अब कभी क्रोध न करना, हिंसा न करना, किसी को दुख न देना । यदि तू ऐसा करेगा तो मैं समझूगी कि बदला पूरा हुआ।"
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy