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________________ ४० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ दर्शन का लाभ प्राप्त नही हुआ । उपदेश सुनने से भी वह वचित रहा। परिणाम यह हुआ कि उसकी रुचि वदल गई । रुचि बदल जाने से उसके सम्यक्त्व के पर्यायो की हीनता होती चली गई और मिथ्यात्व के पर्याय बढते चले गए। होते-होते एक दिन ऐमा भी आया कि वह पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी हो गया। एक बार उसने तेला व्रत ग्रहण किया। ग्रीष्म ऋतु थी, ज्येष्ठ का महीना था । व्रत ग्रहण करके वह पोपधशाला में विचरण करने लगा। अब हुआ यह कि जब उसका व्रत पूर्ण होने को था, तभी वह भूख और प्यास से बहुत पीड़ित हुआ। उस पीडा के परिणामस्वरूप उसके मन मे यह विचार आया-वे सार्थवाह आदि धन्य है, भाग्यवान है, जिनकी राजगृह नगर से वाहर बहुत-सी बावडियाँ, पुष्करिणियाँ अथवा सरोवरो की पक्तियाँ है। उनसे बहुत से लोगो को सुख मिलता है। लोग उनके जल से स्नान करते है, पानी पीते है और अपने शरीर का ताप मिटाते है । अत मैं भी कल प्रभात होने पर राजा से आज्ञा लेकर नगर से वाहर एक सुन्दर पुष्करिणी बनवाऊंगा। यह विचार करते-करते नन्द मणिकार ने मन ही मन अपनी पुष्करिणी के लिए स्थान का निश्चय भी कर लिया। उसने तय किया कि वह उत्तर-पूर्व दिशा मे, वैभार पर्वत के समीप ही अपनी पुष्करिणी बनावाएगा। उस पुष्करिणी का छोटा-सा सुन्दर-सा नाम वह रखेगा-नन्दा । वह दिन समाप्त हुआ। उसका पौपध व्रत पूर्ण हुआ। स्नानादि से निवृत्त होकर उसने राजा के लिए कुछ वहुमूल्य उपहार लिए और उनकी सेवा मे पहुँचा। राजा को उपहार समर्पित कर उसने अपनी अभिलापा प्रकट की "हे राजन् । मैं आपकी आज्ञा पाकर नगर से बाहर एक पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ।" राजा को इस शुभ कार्य मे भला क्या आपत्ति हो सकती थी? नन्द मणिकार की प्रार्थना स्वीकार करते हुए उसने कहा
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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