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________________ फिर क्या हुआ = "नन्द | तुम्हारा विचार शुभ है । मेरा चार में तुम्ह राजा से आज्ञा प्राप्त हो जाने पर शुभ मु ज्ञाताओ द्वारा चुनी गई भूमि में मगन विधि-विधान खोदे जाने का कार्य आरम्भ हो गया । Serge धीरे-धीरे पुष्करिणी बनकर पूर्ण मोहरीर कोटा भी बना दिया गया । उसका जन बीतन ही समय मे उस वापी मे अनेक प्रकार के कमलमा थिए । अब उस वापी की शोभा देखते ही बनती थी। से उस वापी का जल सदैव सुगन्धित रहने लगा । श्रमण से ग अनेक पक्षियो के मधुर कलरव से वह वापी गुजायमान रहने लगा। हारा-थका व्यक्ति वहाँ पहुँच जाता वह कुछ ही क्षणा में स्वय आनन्द मे मग्न हो जाता । ****** हे गौतम | वह नन्द मणिकार अपनी धुन का पक्का था। वापी खुदवा कर हो सन्तोष नही हुआ । अब उसने वापी के ना चारो दिशाओ मे चार सुन्दर वन खण्ड रूपवाए । निरन्तर उन वन गশ की देख-रेख तथा सार - सम्हाल करने के कारण वे धीरे-धीरे अत्यन्त मनोरम, सघन, हरे-भरे हो गए । अनेक प्रकार के फूल और फन उनमे लगने लगे । इतना सब हो जाने पर नन्द मणिकार ने अपनी प्रिय 'नन्दा' नामक वापी को ओर भी अधिक सुसज्जित तथा आरामदेह बनाने का विचार किया। इस निश्चय के अनुसार उसने पूर्व दिशा के वनखण्ड मे एक विशाल चित्रसभा का निर्माण कराया । कई सौ खम्भों पर टिकी हुई वह विशाल चित्रसभा अत्यन्त मनोहर और भव्य बन गई । वहुमूल्य रेशमी वस्त्रो के परदे स्थान-स्थान पर लगाए गए । कला को प्रदर्शित करते हुए अनेक चित्रो से उसे सजाया गया । उसके वाद चित्रसभा मे अनेक सुखद आसन विछ्वाए गए। लोग आते, वापी का शीतल और मधुर जल पीते, चित्रसभा मे आकर विश्राम करते और आनन्द मनाते ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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