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________________ सयम-असयम ७१ है, योग की नहीं। मैं विवश हूँ ।” कहते-कहते उनकी आँखो से आँसुओ की धारा बह चली। पुण्डरीक नही चाहता था कि भाई अपने जीवन को नीचा गिरा ले और सारो मेहनत को व्यर्थ कर दे। उसने समझाने का यत्न किया, किन्तु कण्डरीक तो सयम-पालन मे अब अपने आपको बिलकुल असमर्थ पा रहे थे। यह स्थिति देखकर राजा पुण्डरीक ने अपनी आत्मा को टटोला । वह जाग पडी थी और संयम-पालन के लिए प्रस्तुत थी। उन्होने कण्डरीक को राज्य सौपा और स्वय दीक्षित होकर चल पडे । जीवन-भर भोगो मे लिप्त रहने वाली आत्मा क्षणभर मे चैतन्य होकर योगी बन गई। कण्डरीक अव राजा था। विषय-भोगो मे वह ऐसा लिप्त हुआ कि उसे अपने तन की भी कोई सुधि न रही। वह योग से भोग की ओर आकर उसमे आकण्ठ डूब गया। परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही उसे नाना प्रकार की व्याधियो ने ग्रस लिया। अन्त मे व्याधि-ग्रस्त विनष्ट शरीर को 'हायहाय' करता हुआ छोडकर वह आर्तध्यान वश प्राण त्याग कर सातवे नरक मे नैरयिक वना। एक भव्य भवन क्षणमात्र मे धूलि-धूसरित हो गया। एक साधक की वर्षों मे कमाई हुई सयम की पूंजी लुट गई । उधर पुण्डरीक मुनि ने अपने मन को पूरी तरह साध लिया था। जीवन की अन्तिम बेला मे वह राज्य से विरक्त होकर स्थविर मुनियो की सेवा मे गए, संयम व्रत अंगीकार किया, स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या मे निरत रहे और अपनी आत्मा को उज्ज्वल से उज्ज्वलतर बनाते रहे। शरीर क्षीणधर्मा होता है । रूखा-सूखा आहार ग्रहण करते-करते मुनि का शरीर कृश तथा रुग्ण हो उठा। तीव्र वेदना उत्पन्न होने लगी। किन्तु वे धैर्यपूर्वक इस वेदना को भी सहते रहे । अन्तिम क्षणो मे आत्मालोचन करते हुए समाधिपूर्वक शुभ भावो से मरण प्राप्त कर वे सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्कृष्ट स्थिति वाले देव के रूप मे उत्पन्न हुए। सम्पूर्ण मन से की गई अल्प समय की सयम-साधना से भी पुण्डरीक को उत्कृष्ट न्विति की देवयोनि प्राप्त हुई। जबकि दीर्घकाल तक मुनि जीवन व्यतीत करने के पश्चात् भी तनिक-सी विपयासक्ति के कारण कण्डरीक का मारा परिचम एव साधना व्यर्थ हो ग और उसे नरकगामी वनना पड़ा। सयम-अमयम के ये दो छोर है। -ज्ञाता १११६
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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