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________________ ७० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं जलने लगे। मुनि जीवन होने के कारण मुख से कुछ कह भी नही सकते थे और संयम उनसे हो नही रहा था। बडी दुविधा मे समय बीतने लगा। किन्तु सत्य तो छिपाए छिपता नही । भेद प्रकट होता ही है । रोग उपशान्त होने के बाद भी मुनि का वही जमे रहना तथा सयम मे शिथिलता वरतना पुण्डरीक को उचित नही जान पडा । उन्होने मुनि को मनोवैज्ञानिक रूप से, अप्रत्यक्ष तरीके से समझाने का प्रयत्न किया। मुनि के समक्ष उनकी प्रशंसा करते हुए वे बोले “महाराज ! आपका यह तपस्वी-जीवन धन्य है, आदर्श है। कठोर सयम का पालन करते हुए आप जनपद में विहार करते हे तथा जन-कल्याण मे रत रहते है । क्षुधा-तृषा आदि को सहन कर साधना-पथ पर अडिग होकर आगे ही आगे बढते जाते है। हम लोग तो विषय-वासनाओ के दास है, पामर है। वीरोचित जीवन तो आपका ही है कि किसी भी वस्तु से, किसी भी व्यक्ति से किसी स्थान से, आप कोई मोह नहीं रखते। आप परम सयमी है । हम जैसे असंयमी व्यक्ति तो इन व्रतो को एक दिन भी निभा नहीं सकते ।" पुण्डरीक द्वारा की गई अपनी इस प्रकार की प्रशसा सुनकर मुनि कण्डरीक मन ही मन जल कर रह गए। अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु उन्हे उस स्थान से विहार कर चले ही जाना पड़ा, यद्यपि उनका मन पीछे ही छूट गया, भोगो के कीचड मे लिप्त । साधु जीवन कठोर कंटको का मार्ग है। केवल वस्त्र वदल लेने से ही साधता नही आ जाती । सच्चे मन से जब समस्त सासारिक आकाक्षाओ को निर्मल कर दिया जाता है, जब संयम मे सुख का अनुभव होने लगता है, तभी सच्ची साधुता आती है। सुदीर्घ काल तक साधवेश मे रहने पर भी मुनि कण्डरीक का मन साधना मे रत नहीं हो सका। अब वे राज्य त्याग कर साधु बन जाने की अपनी भूल मानते ओर पछताते थे। उनका मन बार-बार विपय-भोगो को कामना करता था और उन्ही की ओर भागता था । अन्त मे जब उनसे नहीं रहा गया तो वे भाई पुण्डरीक की राजधानी मे लाट आए और साफ-साफ बोले भाई । में इस मुनि धर्म से उकता गया है। अव एक क्षण भी इसे स्वीकार करके में नहीं रह सकता । क्षमा कर, मेरी आत्मा भोग की इच्छुक
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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