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________________ १४ दीप- शिखा वारात लेकर यदुकुलभूपण राजकुमार नेमि चले । राजकुमारी राजमती प्रतीक्षा की घडियाँ गिन रही थी । उल्लाम ओर आनन्द मन मे दवाए दबता नही था । चेहरे की सलज्ज स्मित के मिस फूटा पडता था । किन्तु कुछ अप्रत्याशित घटित होना था । बाजे-गाजे की मधुर-मगल ध्वनियों को चीरता हुआ कुछ पशुओ का करुण चीत्कार राजकुमार नेमि के कानो से जा टकराया । " इस समय यह चीत्कार कैसा ?” राजकुमार ने जानना चाहा । और जो कुछ राजकुमार ने जाना, उसे जानकर उनका जीवन सफल हो गया । कितने व्यक्ति है जो यह मर्म जान पाते है कि जीवन किसी प्राणी को पीडा देने मे नही, प्रेम देने में है ? उन मूक पशुओ की पीडा को राजकुमार नेमि ने जाना जिनका वध केवल इसलिए किया जाता था कि एक राजकुमार का विवाह होगा, कुछ लोग मास और मदिरा से अपनी रसना को तृप्त करेंगे । केवल इस हेतु हजारो निर्दोष पशुओं की निर्मम हत्या | आपकी जीभ का स्वाद ही सब कुछ हुआ, उन जीवो के प्राणो का कुछ भी मुल्य नही ? अनुचित है । जो अनुचित है, वह पाप है । राजकुमार नेमि ने विवाह करना तो दूर समार ही त्याग दिया । उमग-उल्लास भरी राजकुमारी राजमती सोचती ही रह गई - क्या हो गया यह ? अब आगे क्या ? ७२
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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