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________________ दीप-शिखा किन्तु दीप-शिखा जल चुकी थी। उसके प्रकाश मे राजमती ने अपना मार्ग खोज लिया। हृदय से एक बार जिसे अपना पति मान लिया था, वही उसे मार्ग दिखा गया था। रथनेमि ने राजमती के साथ विवाह करना चाहा । उसकी वासना उद्दाम थी । पर राजमती कौन-सी रुई की पुतली थी कि जो चाहे वह उसे फूंक मार कर उडा ले जाय? उसने कहा "जुन खाइयेगा ? किसी का वमन किया हुआ पदार्थ ग्रहण कीजिएगा ? आपकी आत्मा क्या मर चुकी है ?" रथनेमि जाग पडा । मरी नही थी उसकी आत्मा, मूच्छित थी, मोहविमूच्छित । वह जाग उठी। रथनेमि श्रमण वन गया। दीप-शिखा जल चुकी थी न ? उसके प्रकाश मे खोजना चाहने वालो को अपना-अपना मार्ग मिल सकता था। एक वार राजमती भगवान नेमिनाथ के दर्शन कर गिरनार पर्वत से नीचे उतर रही थी। वर्षाकाल था। वर्षा हुई और उसके वस्त्र भीग गए। भीगे वस्त्रो को सुखा लेने के लिए वह पर्वत की एक कन्दरा मे प्रविष्ट हुई और वस्त्रो को सुखाने के लिए फैला दिया । सयोगवश श्रमण रथनेमि उसी कन्दरा मे ध्यान कर रहे थे । निर्वस्त्रा राजुल को देख उनका हृदय फिर डोल गया । वासना के वेग ने उनकी तपस्या के तट पर भीषण पछाडे खाना आरम्भ कर दिया "राजुल । राजमती । चलो संसार मे लौट चले। सुख पाएँ । यह सौन्दर्य, यह यौवन क्या इस नीरस तपस्या के लिए है ?" एक बार फिर राजमती ने डूबते हुए को उवारा "रथनेमि । असावधानी मत करो। अमृत-फल का त्याग कर फिर उसी घृणित जुठन मे मुंह मारना चाहते हो ? तुम मनुष्य हो अथवा • ?" इतना ही पर्याप्त हुआ। मनुष्य जाग पडा या ओर दीप-शिखा जल रही थी। -~-दशवकालिक-२
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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