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कोणिक नहीं माना
शक्ति और सम्पत्ति इसलिए होती है कि मनुष्य उनका सदुपयोग करे और जितना जो कुछ है, उसमे सन्तुष्ट रहे ।।
किन्तु मनुष्य मे जब यह ज्ञान नहीं होता तो शक्ति उसे मदान्ध बना देती है और सम्पत्ति असंयमी ।
मदान्ध और असंयमी व्यक्ति निश्चय ही विनाश को प्राप्त होता है ।
कोणिक राजा के साथ ऐसा ही हुआ । वह स्वयं को चक्रवर्ती मानता था, चक्रवर्ती होने से कम मे वह सन्तुष्ट नही था। राजा था, कोई कमी तो थी नहीं, अटूट वैभव था। चाहता तो सदा सुखी रहता और अपनी शक्ति और सम्पत्ति से प्रजा को भी सुखी रखता । मानव-कल्याण मे कुछ योग देता।
किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत । वह तो स्वयं को चक्रवर्ती सिद्ध करने के लिए विवेक को तिलाजलि देकर अपने विनाश को निमन्त्रित कर बैठा। यदि उसमे कुछ भी विवेक रहा होता तो क्या वह स्वय भगवान के वचनो पर अश्रद्धा करता? उसने भगवान महावीर से पूछा था
"भन्ते । जो चक्रवर्ती अपने जीवन मे कामभोगो का परित्याग नही कर सकता वह मृत्यु के उपरान्त किस योनि को प्राप्त करता है ?"
भगवान ने बताया था"देवानुप्रिय । ऐसा चक्रवर्ती सातवे नरक मे उत्पन्न होता है।"
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