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माँ-बेटे
देवकी के घर दो भिक्षु भिक्षा लेने के लिए आए। उसने अत्यन्त हर्षित होकर उन्हे भिक्षा प्रदान की । अपने को धन्य माना ।
कुछ ही समय पश्चात् दो भिक्षु फिर से देवकी के यहाँ भिक्षा लेने आए । देवकी और भी प्रसन्न हुई । उसने भिक्षा प्रदान की । भिक्षु चले गए । किन्तु थोडा ही समय व्यतीत हुआ था कि दो स्वरूपवान भिक्षु पुन देवकी के यहाँ भिक्षा लेने आए । देवकी उसी प्रकार हर्षित हुई । अपने भाग्य को सराहती रही । किन्तु उसे एक बात का वडा विस्मय हुआ । वह सोचने लगी- ऐसी समृद्ध द्वारिका नगरी मे, जहाँ कृष्ण - वासुदेव जैसे राजा राज्य करते है, क्या इन भिक्षुओं को भिक्षा प्रदान करने वाले लोग नही रहे कि इन्हे वार-बार मेरे ही घर भिक्षा के लिए आना पड रहा है ?
आखिर उन भिक्षुओ से वह पूछ ही बैठी
"भन्ते । मै बडी सौभाग्यशालिनी हैं कि मुझे आपकी पद-रज प्राप्त हुई और आपको भिक्षा प्रदान करने का अवसर मिला । किन्तु क्या द्वारिका धर्मनिष्ठ गृहपतियो से शून्य हो गई है कि आपको वार वार मेरे घर भिक्षा के लिए आना पड रहा है ?"
वास्तविकता यह थी कि भगवान नेमिनाथ द्वारिका पधारे हुए थे । उनके भिक्षु नघ मे छह भिक्षु महोदर थे । उनका रूप, वय, आकृति आदि एकदम समान थी । भगवान से आज्ञा लेकर वे दो-दो की टोली में भिक्षा लेने निकले थे । इस प्रकार देवकी के घर कोई भी भिक्षु दुबारा नहीं गया
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