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________________ क. पन्थाः । को तो लोभ चढा था, भला वे क्यो किसी की सुनने लगे ? निदान यात्रा की तैयारी कर, विशाल जलयान तैयार कर, उसमे प्रचुर व्यापार-सामग्री लादकर, और माता-पिता की सलाह की उपेक्षा कर वे एक दिन चल ही पडे । कुछ समय तक तो यात्रा कुशलतापूर्वक होती रही, किन्तु फिर एकाएक परिस्थिति बिगड गई । समुद्र मे तुफान उठा ओर देखते ही देखते पृथ्वी और आकाश अन्धकार से घिर गए। पहाडो के समान ऊँची और विशाल तथा अजगर के समान फुफकारती लहरो के भीपण थपेडो ने जलयान को वालको के खिलौने की भॉति उठा-उठाकर पटका और उसे चूर-चूर कर दिया। यान मे जितने भी व्यक्ति थे सब डूब गए। जो कुछ भी सामग्री थी वह समुद्र के गर्भ मे समा गई । भाग्यवशात् दोनो भाइयो के हाथ एक पटिया लग गयी जिसके सहारे अर्धमूच्छित अवस्था मे किसी प्रकार अपने प्राण बचाते हुए वे रत्नद्वीप के किनारे जा लगे । भूख-प्यास से वे बेहाल थे । लहरो के थपेडे खा-खाकर उनका शरीर जर्जर हो गया था और उनका पोर-पोर पीडा दे रहा था। जैसे-तैसे उन्होने कुछ फल-मूल खाकर अपनी क्षुधा को शान्त किया और नारियल का तेल निकालकर उससे अपने दुखते बदन को कुछ राहत पहुँचाई।। उस निर्जन द्वीप मे असहाय बैठे दोनो भाई सोच रहे थे कि अब क्या करे और कहाँ जायें ? उसी समय रत्नद्वीप मे रहने वाली रत्ना नामक देवी वहाँ आई। वह देवी वडी विलासिनी थी और हृदय से बडी कठोर भी थी। उन दोनो युवको को देखकर उसका मन विलास की कल्पना मे डूब गया । वह उन पर मुग्ध हो गई थी। फिर भी ऊपर ही ऊपर से कठोरता प्रदर्शित करती वह बोली “मेरे राज्य मे, मेरी आज्ञा के विना प्रवेश करने वाले तुम तोग निश्चय ही अपनी मृत्यु चाहते हो। तो लो, मैं इसी क्षण तुम्हारी अभितापा की पति किए देती हूं।" वेचारे सार्यवाह-वन्धु अत्यन्त भयभीत हो गए । दीनतापूर्वक वोले
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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