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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ "हे देवि । हम तो भाग्य के मारे है । अब तुम्हारी ही शरण मे ह् ।' चाहे मारो, चाहे जिलाओ ।" १८० उनकी कथा सुनकर, मन ही प्रसन्न होती वह देवी बोली" खैर, जो हुआ सो हुआ । अव यदि तुम मृत्यु चाहते हो तो वैसा कहो । किन्तु यदि जीवन चाहते तो मेरे साथ चलो, मेरे महल मे रहो, मेरे साथ भोग-विलास करो और मुझे धोखा देने का प्रयत्न न करो । अन्यथा इसी क्षण तुम्हारी मृत्यु आई जान लो ।” कोई विकल्प तो था नही, अत दोनो भाई चुपचाप देवी के साथ चल दिए । समय व्यतीत होता रहा । भोग विलास चलता रहा । एक दिन इन्द्र ने उस देवी को किसी कार्य से अन्यत्र जाने की आज्ञा दी | जाने से पूर्व देवी ने दोनो भाइयो को सावधान किया "देखो, महल मे ही रहना । यदि मन न लगे तो उद्यान में चले जाना । पूर्व दिशा के उद्यान मे सुन्दर सरोवर ओर वापिकाएँ है, वृक्ष-वताएँ हे, वहाँ तुम्हे सावन-भादो तथा आसोज कार्तिक का आभास होगा । वहाँ से भी उकता जाओ तो उत्तर दिशा के उद्यान मे चले जाना । वहा तुम्हे अग हन, पीप, माघ ओर फागुन का सुख मिलेगा । मान लो कि तुम वहाँ से भी ऊब जाओ तो भले ही पश्चिम के वन मे जाकर घूम-फिर आना । लेकिन याद रखना, भूलना नहीं, कि दक्षिण के उद्यान मे तुम्हे कदापि नही जाना है । उस उद्यान मे एक अति भयकर सर्प रहता है ।" इस प्रकार उन्हें समझा-बुझाकर ओर डरा धमकाकर देवी चली गई । दोनो भाई कुछ समय इधर- उबर टहलते रहे। फिर उनके मन मे कोतुहल जागा कि आखिर देवी ने दक्षिण के उद्यान मे जाने मे उन्हें क्यों रोका ? अवश्य ही कोई न कोई रहस्य होना चाहिए । वे अपने कुन्हुल को दवा न सके। धीरे-धीरे उमी उद्यान की ओर वडे | पास मे जाने-जाने वडी दुर्गन्ध आने लगी। कुछ आगे बढे तो हड्डियो का ढेर उन्हें दिखाई दिया । ओर थोडा ही आर आगे जाने पर तो वे एकएक चोक ही पडे। उन्होंने देखा कि एक आदमी एक सूली पर लटका हुआ या आर पीडा के कारण कराह रहा था ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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