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________________ १८१ क पन्था ? विस्मय से जडीभूत और भय से विह्वल उन भाइयो ने किसी प्रकार साहस करके उस व्यक्ति से पूछा "क्यो भाई । तुम कौन हो ? यहाँ कैसे आ गए ? तुम्हे सूली पर किसने चढा दिया ?" पीडाजनित कराह को किसी प्रकार अपनी बची खुची शक्ति से थाम कर उस अभागे व्यक्ति ने कहा --- "भाई । मै एक व्यापारी हूँ । अश्वो का व्यापार करता हूँ। दुर्भाग्य से मेरा यान टूट गया और मैं इस द्वीप मे आकर इस दुष्टा देवी के चगुल मे पड गया । यह दुष्टा मेरे साथ जीभर कर काम भोग करती रही। किन्तु अव जवकि तुम लोग उसे मिल गए हो तो इसने मुझे इस दशा मे ला पटका है। इसकी कृतघ्नता, कठोरता और भोगेच्छा का कोई अन्त ही नहीं।" वह हड्डियो का ढेर, वह सूली पर चढा मनुष्य अपनी कथा अब स्वय ही कहने लगे । दोनो भाई जान गए कि कुछ समय मे जब इस पिशाचिनी को कोई अन्य व्यक्ति मिल जायगा तब उनकी भी यही दशा होगी। वे अपने प्राणो के भय से चीख उठने की स्थिति में आ गए। आखिर उन्होने उसी व्यक्ति से पूछ"इस राक्षसी से बचने का क्या कोई उपाय तुम जानते हो ?" सूली चढे अभागे ने बताया “पूर्व दिशा के उद्यान मे सेलग नामक एक यक्ष का निवास है। वह यक्ष अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अमावस्या को प्रकट होकर पुकारता है-"किसको तारूं ? किसको पार उतारूँ ? मैं, सेलग यक्ष उस देवी के चगुल मे फंसे हुए लोगो की रक्षा करता हूँ।"--भाइयो | यदि तुम अपने प्राण बचाना चाहते हो तो उस यक्ष ही शरण मे जाना और कहना-हमे तारो । हमे पार उतारो।'-वस, रक्षा का यही एक उपाय है । उस यक्ष मे ही इतनी शक्ति है कि वह तुम्हे जीवित उस राक्षसी की पहुंच से बाहर पहुँचा दे और कोई भी रास्ता नही है ।" दोनो भाइयो ने विचार किया कि उपाय तो मिल गया और जान बचाने का प्रयत्न भी अवश्य करना ही है, किन्तु इस व्यक्ति से भी तो पूछना
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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