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सत्यमेव जयते
२८५ सकोच के प्रकट किया है । अत मै चाहता हूँ कि तुम झूठ न बोलकर सदा सत्य वोला करो।"
सन्त की जादूभरी वाणी से चोर इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसी समय प्रतिज्ञा ग्रहण की कि आज से मै कभी भी झूठ न बोलूंगा, सदा सत्य ही बोलूंगा।
सन्त ने प्रतिज्ञा दिलाते हुए कहा-"प्रतिज्ञा तो ले रहे हो, प्रतिज्ञा लेना जितना सरल व सीधा है उतना प्रतिज्ञा को पालन करना कठिन है।"
चोर ने दृढता के साथ कहा-"नही महाराज | मै सच्चे मन से प्रतिज्ञा ग्रहण कर रहा हूँ। प्राणो को त्याग करके भी प्रण को निभाऊँगा।"
प्रतिज्ञा लेकर चोर घर पहुँचा । पर उसके कर्ण-कुहरो मे भगवान की वाणी गूंज रही थी। वह विचारने लगा कि अभी तो घर मे खाने-पीने की कोई कमी नहीं है फिर व्यर्थ ही चोरी कर दूसरो को कष्ट क्यो ढूँ। जव घर मे खाने को न रहेगा, तब ही चोरी की बात सोचूंगा।
उसने अनेक दिनो तक चोरी नही की, जो पास मे था उसे खाता रहा। जब घर मे सभी वस्तुएँ समाप्त हो गई, तो वह चोरी के लिए निकला। उसके कदम अपने लक्ष्य की ओर पड रहे थे और साथ ही चिन्तन भी चल रहा था कि यदि किसी साधारण व्यक्ति के यहाँ चोरी करूँगा तो उसे कितनी कठिनाई होगी, वह कितने ही दिन तक रोता रहेगा, इसलिए चोरी ऐसे स्थान पर करनी चाहिए, जिससे उसके मालिक को चिन्ता न हो, वह शोक-सागर मे डुबकी न लगाये । अच्छा तो, आज राजा के यहाँ पर ही चोरी करे । उसके यहाँ तो विराट् वैभव अठखेलियाँ कर रहा है। वहाँ से यदि कुछ धन ले भी आया तो उसे किसी प्रकार का कष्ट नही होगा।
___ राजा के खजाने की चोरी करने के लिए मुझे पहले से तैयारी करनी पडेगी । यो ही चला गया तो निराशा देवी के ही दर्शन होगे। उसने गुप्त रूप से जाकर राजा के खजाने के तालो को देखा। उनकी चाबियाँ बनाई और एक रात सेठ का रूप बनाकर चावियो का गुच्छा लेकर वह खजाने की ओर चोरी करने के लिए चल पडा।
उस दिन राजा श्रेणिक और महामन्त्री अभयकुमार अपनी प्रजा के सुख-दु ख की सही स्थिति जानने के लिए वेप परिवर्तन कर नगर की गलियो