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सत्यमेव जयते
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अमण भगवान महावीर का समवसरण एक बार राजगृह नगर के बाहर लगा हुआ था। भगवान के पीयूपवर्षी प्रवचन का पान करने के लिए रजाने भक्तगण पहुंचे थे। प्रवचन पूर्ण हुआ। श्रोतागण अपने-अपने स्थान ती मोर चल दिये । किन्तु एक चोर वही पर दुवक कर बैठा था । एक सन्त न पछा- 'मे बैठे हो भैया ?"
आज का दिन धन्य है | आज मैने अपने जीवन मे सर्वप्रथम भगवान ती मगलमय वाणी मुनी । वाणी क्या है, मानो अनमोल रत्नो की ही वर्गा हो रही हो ।"
मन्त ने कहा--"रन्नो की वी तो हुई, पर तुमने कितने रत्न ग्रहण किये ह 'पदि तुमने एकाध रन्न भी ग्रहण नहीं किया तो यह बहुम्त्य रत्नवर्षा तुम्हारे किम काम की।"
चोर चिन्तन के मागर में इबकी लगाने लगा कि मुझे क्या लेना चाहि मे चोर ह । चोरी करना मेग धन्धा है। यदि म चोरी करना ही छोड ईनो मेग साग परिवार भग्व से छटपटाकर मार जायेगा । यदि मने चोग मा पापार्म नहीं छोड़ा तो फिर अन्य क्या छोडूं ?
उसने अपनी ममन्या मन के मामने प्रस्तुत की।
नन्न मनोविज्ञान का स्कम जाता था। वह मानव-मन को परखनेसीमा में निपात था। उसने कहा- भाई तुम चोरी न छोडो, अभी चोरी छोटने ना हमाग आगह भी नहीं है। तृमने पिने जीवन की मत्य पटना मुसने कही है। अपने जीवन की सबमे वही समजोरी को पिना किमी