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________________ २८६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ मे घूम रहे थे। उन्हे सेठ बना हुआ चोर मामने मिल गया। राजा ने पूछा-"कौन ?" चोर के सामने प्रश्न क्या था, एक गम्भीर समस्या थी। उसे ममझते हुए देर न लगी कि प्रश्नकर्ता साधारण गक्ति नहीं किन्तु स्वय सम्राट और मन्त्री है। वह एक क्षण हिचकिचाया, पर दूसरे ही क्षण मंभल गया, उसने मन मे दृढ निश्चय किया कि सत्य ही बोलना है। राजा ने कडककर दुवाग पूछा--"बोलता क्यो नहीं, कौन है ?" "मै चोर हूँ।" "कहाँ जा रहा है ?" गजा ने दूसरा प्रश्न किया। "चोरी करने जा रहा हूँ।" नोर का उत्तर सुनकर राजा और मन्त्री मन मे विचारने लगे, व्यर्थ ही हमने एक राह चलते हुए व्यक्ति को टोका। चोर अपने को कभी भी अपने मुंह से चोर नही कहता । वह अपना परिचय सदा साहूकार के रूप मे ही देता है । यह चोर नही साहूकार है । वे मुस्कराते हुए बगल से निकल गये। सेठ बना हुआ चोर राजमहलो मे पहुँचा। पहरेदार खडे थे। उन्होंने पूछा-"कौन है ?" चोर ने बिना किसी हिचकिचाहट के वही उत्तर दिया-"चोर हूँ।" पहरेदारो ने सोचा-राजा और मन्त्री वेप परिवर्तन कर अभी बाहर गये है उन्होने किसी राज्य अधिकारी को भेजा है इसलिए वे मार्ग से हट गये । चोर ने खजाने का ताला खोला । अन्दर जाकर इधर-उधर देखा, वैभव विखरा पड़ा था। उसने चार वहुमूत्य जवाहरात के डिब्वे देते । मेरे जीवन निर्वाह के लिए दो डिब्बे ही पर्याप्त है। इन दो डिब्बो से तो मेरा सारा परिवार सुखी हो जायेगा और सदा के लिए चोरी जैसे निकृष्ट कार्य को छोडकर अपने जीवन को पवित्र बनाने का प्रयास करूंगा। उसने शीघ्र ही चार डिव्वो मे से दो डिब्बे बगल मे दवाये, खजाने का ताला बन्द कर, शीघ्र ही लौट गया। चोर ज्योही आगे बढा, त्योही सामने से राजा और मन्त्री आ गये। राजा ने पूछा-"कौन ?" "श्रीमान् | मैंने एक बार पूर्व भी बताया था कि मै चोर हूँ। अव आप ही बताइये कि और क्या परिचय दूं।"
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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