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________________ २६१ गृहिधर्म की आराधना कहने लगा- "भाई । मै एकान्त मे धर्मजागरण मे प्रवृत्त रहना चाहता हूँ, इसलिए भविष्य मे किसी भी प्रकार का सम्पर्क-सम्बन्ध मुझसे कोई न रखे और न ही कोई मन्त्रणा (सलाह) करे।" अपने स्वजनो की अनुज्ञा प्राप्त कर गृहपति आनन्द कोल्नाग सन्निवेशस्थ पौषधशाला मे आया। विधिवत् उक्त स्थान की प्रतिलेखना कर भगवान महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरण करने लगा। ___गृहपति आनन्द ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमा स्वीकार की। सूत्र कल्प और मार्ग के अनुसार प्रत्येक प्रतिमा को काया द्वारा ग्रहण करते हुए उपयोग द्वारा रक्षण मे प्रवृत्त हुआ। अतिचारो का त्याग करते हुए विशुद्ध हुआ। प्रतिमाओ के स्वीकरण और उनमे होने वाले घोर तपश्चरण से उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया। धर्म जागरण करते हुए एक दिन ग्रहपति आनन्द के मन मे फिर विचार-सकल्प का उदय हुआ-"इस अनुष्ठान मे शरीर कृश हो चला है । हड्डियो का ढाँचा मात्र यह रह गया है। फिर भी मुझ मे अब तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, घृति और सवेग है । क्यो न मै इनकी उपस्थिति मे ही अपश्चिम मारणान्तिक सलेखना से युक्त होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान करूं।" अपने सकल्प को तत्काल आनन्द ने कार्य रूप मे परिणत कर दिया। शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम व विशुद्ध होती हुई लेश्याओ से श्रमणोपासक आनन्द के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ। उसे निर्मल अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। इन्ही दिनो भगवान महावीर पुन वाणिज्य ग्राम पधारे । गौतम स्वामी वेले की तपस्या पूर्ण कर भगवान की आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए नगर मे आये । जनता मे श्रमणोपासक आनन्द के आमरण अनशन की चर्चा सुनकर गौतम स्वामी इन्हें देखने की भावना से पौपधशाला मे आये । गौतम म्वामी के आगमन पर आनन्द को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वह शारीरिक असमर्थतावश उठ न सके। लेटे-लेटे ही आनन्द ने उन्हे वन्दन किया और उनके चरण स्पर्श किये। आनन्द ने कहा-"भगवन् । क्या आमरण अनशन मे गृहस्थ को अवविज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?" गौतम बोले-हाँ, हो सकता है।"
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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