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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ परिकर में घिरी सुन्दर मुसज्जित यान पर आरूढ हो भगवान महावीर के समवशरण मे पहुंची । महती परिपद् के माथ भगवान की देशना सुनकर वह आत्मविभोर हो गई । भगवान के समक्ष द्वादग व्रत का विधि-विधानपूर्वक गृहस्य-धर्म मे पालन करने का सकल्प लेकर अपने घर बापम आ गई। पुनश्च , गणधर गोतम ने भगवान से पूछा-"प्रभो । श्रमणोपासक गृहपति आनन्द क्या आपके समक्ष प्रव्रजित होने में समर्थ हे ?" केवलज्ञानी भगवान महावीर ने उत्तर दिया-“गोतम । ऐमा नही है। आनन्द बहुत वर्षो तक श्रावक पर्याय का पालन करता हुआ अनशनपूर्वक शरीर त्याग कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में नार पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न होगा।" इधर आनन्द ओर शिवानन्दा दोनो ही जीव-अजीव की पर्यायो पर अनुनिन्तन करते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगे। शीलवत, अणुव्रत, प्रत्याग्यान तथा पोपत्र-उपवास आदि करते हए अपनी आत्मा को भावित ग्नेि लगे। वीरे-धीरे चोदह वर्प व्यतीत हो गये । पन्द्रहवे वर्ष का प्रारम्भ ती या कि एक बार रात्रि के उत्तरार्ध मे धर्म-जागरण करते हुए आनन्द के मन मे माप उदय हुआ--"नगर के राजा, युवराज, नगर-रक्षक, नगरप्रधान आदि आत्मीय-जनो का मै आधार हूँ। अधिकाश कार्यों मे ने मभी मुझने मन्त्रणा करते रहते है। इसी व्यस्तता ओर व्यग्रता के फलम्बा भगवान महावीर का दर्शन स्वीकृत कर धर्म-प्रज्ञप्ति को क्रियान्वित करने का मुभवमर आज तक नहीं मिल पाया। शुभ मका भी यदाकदा उठते है, क्यो न टमका मदुपयोग किया जाय ?'' ऐसा विचार आते ही माता ने बल पडा । वह पुन मोचने लगा--"कल प्रात काल होते ही जानि-स्वजनो मित्रो को निमन्त्रित कर उन्ही के समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को घर का माग दापिन्व माप वाणिज्य नगर के उत्तर-पूर्व दिशा मे अवस्थित होनाग उपनगर के जाना की पौपधनाला मे भगवान की धर्म-प्रज्ञप्ति पीकार कर विचरण कर।" नादर होते ही मन के नकल्पानुमार मनी ज्ञातजनो को निमन्धिना र उन्हें यावत् नोसन आदि ने सन्तुष्ट व मम्मानित करते हा अमणोपानर नन्द ने अपने विचार प्रगट किये। मब की मम्मति मे ज्येष्ठ न रो दुव गदागिन्य मापा और उपस्थित जनो को मनोधित करने हा
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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