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गृहिधर्म की आराधना
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हिरण्य कोटि के अतिरिक्त धन- संग्रह का त्याग करता हूँ । चार गो व्रज के अतिरिक्त और व्रज का भी विसर्जन करता हूँ । क्षेत्र भूमि मे पाँच सौ हल से अधिक, प्रदेशान्तर मे जाने के लिए एव घरेलू काम के लिए पाँच-पाँच सौ शकटो से अधिक का त्याग करता हूँ ।"
इसी प्रकार आनन्द ने वाहन, वस्त्र, भोजन, आभूषण इत्यादि सभी पदार्थो के विषय मे एक निश्चित सीमा अगीकार करली |
इसके बाद भगवान ने कहा - " आनन्द । जीवाजीव की विभक्ति के ज्ञाता व अपनी मर्यादा मे विहरण करने वाले श्रमणोपासक को व्रतो के अतिचार भी जानने चाहिए ।"
गृहपति आनन्द ने भगवान से अतिचार का विस्तृत विवेचन करने के लिए प्रार्थना की । भगवान महावीर ने अतिचारो की स्पष्ट व्याख्या कर आनन्द की जिज्ञासा का समाधान किया । आनन्द ने पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ग्रहण किये। एक अभिग्रह ग्रहण करते हुए आनन्द ने भगवान से निवेदन किया- “भते | आज से इतर तैथिको की, इतर तैथिको के देवताओ व इतर तैथिको द्वारा स्वीकृत चैत्यो को नमस्कार नही करूँगा । उनके द्वारा वार्ता का आरम्भ न होने पर, उनसे वार्तालाप करना, गुरुबुद्धि से उन्हे अशन-पान खादिम - स्वादिम आदि देना मुझे नही कल्पता है । इस अभिग्रह मे मेरे छ अपवाद होगे । राजा, गण, बलवान, देवताओ के अभियोग से, गुरु आदि के निग्रह से और अरण्य आदि का प्रसंग उपस्थित होने पर मुझे उन्हें दान देना कल्पता है ।"
अपनी दृढनिष्ठा से आनन्द ने कहा - "भते । निर्ग्रन्थो को प्रासुक व एपणीय अशन-पान, खादिम स्वादिम, वस्त्र कवल, प्रतिग्रह ( पात्र), पादप्रोच्छन, पीठ फलक, शय्या, सस्तारक, औषध, भेपज का प्रतिलाभ करना मुझे कल्पता है ।"
अपनी अनेक जिज्ञासाओ का तात्त्विक ढंग से समाधान पाकर विधिपूर्वक भगवान की वन्दना कर गृहपति आनन्द अपने घर आया । घर आकर उसने अपनी पत्नी को व्रत ग्रहण की बात सविस्तार वताई । शिवानन्दा ने पति के मुख से सारी बात श्रवण कर लेने के पश्चात् स्वयं भी व्रत ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की । पति का सह अनुमोदन पाकर वह स्नानादि से निवृत्त हुई, बहुमूल्य वस्त्राभरण से अलंकृत हो, दासियो के