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________________ २५८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ ग्राम मे पधारे। समवसरण लगा। भगवान के आगमन का सवाद सुनकर राजा जितशत्रु परम हर्पित होकर भगवान के दर्शन करने तथा उनका उपदेश सुनने के लिए सपरिवार गया । गृहपति आनन्द ने भी जब यह सवाद सुना तो विचार किया - 'ऐसे पुण्य अवसर भाग्य से ही प्राप्त होते है । अन्यथा गृहकार्यो की झझट तो जीवन भर लगी ही रहती है ।' यह विचार कर वह भी भगवान के दर्शन हेतु जाने के लिए तैयार होने लगा । स्नानादि से निवृत्त होकर तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करके वह द्युतिपलाश उद्यान की ओर चल पडा। आधे रास्ते पर ही वाहन को त्याग कर वह पैदल ही भगवान के समीप पहुँचा । भगवान के दिव्य प्रभामण्डल को देखकर उसका हृदय हर्प से विभोर हो उठा। तीन बार प्रदक्षिणा करके वह उपदेश श्रवण करने के लिए बैठा । भगवान के सदुपदेश को सुनकर मारी जनता आनन्द से विभोर हो उठी । गृहपति आनन्द भी भक्ति से परिपूर्ण हो उठा था । वह बोला I "भते | आज मेरे ज्ञान नेत्र खुलते से प्रतीत होते हैं । मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन मे प्रतीति एवं रुचि रखता हूँ । इसमे मेरी श्रद्धा है । जैसा तत्त्व आपने कहा है, सब वैसे ही है - यह सत्य है । मै इस धर्म की चाह रखता है | आपके समीप राजा, युवराज, दाण्डनिक, सेनापति, नगर-रक्षक, सार्थवाह, श्रेष्ठी, कौटुम्बिक आदि सभी मुण्डित होकर आगार धर्म से अनगार मे आते हैं । किन्तु मैं साधु जीवन की कठिन चर्या में निर्गमन के लिए अपने को असमर्थ व अयोग्य पाता हूँ । अत गृहस्थ धर्म के द्वादश व्रतो के ग्रहण की इच्छा कर रहा हूँ ।" ― भगवान ने अमृतमय वचन कहे " जैमी तुम्हारी इच्छा हो वैसा ही करो । किन्तु शुभ कार्य मे विलम्ब नहीं करना चाहिए ।" गृहपति आनन्द ने तत्काल बारह व्रतो को स्वीकार करते हुए कहाभते । मे दो करण और तीन योग से स्थूलप्राणातिपात, स्थूलमुषानाद व स्थूलनदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है । स्वभार्या के अतिरिक्त अन्य मेरी माना है। इच्छापरिमाण वन के अन्तर्गत चार हिरण्य विसरक्षित र व्यवसाय में प्रयोजित वार हिरण्य कोटि तथा धन-धान्य नादि के प्रविस्तार में प्रयोजित चार हिरण्य छोटि इस प्रकार कव こ
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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