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________________ शुभ सकल्प १६६ विमुख होकर, अनगार बनकर इस देह के बन्धन से सदा के लिए मुक्त होगा और अपनी आत्मा का परम कल्याण करेगा ।" यह फलादेश सुनकर राजा-रानी के आनन्द की सीमा न रही । सारा राज्य हर्ष-विभोर हो उठा । महारानी का गर्भ धीरे-धीरे वढने लगा। तीसरे महीने मे रानी को दोहद उत्पन्न हुआ । उनकी इच्छा हुई - मेघ सारे आकाश में घिरकर गर्जन करने लगे, विजली चमक उठे, मयूरो का केकारव दिशाओ मे गूंज उठे, वर्पा की फुहारो से पृथ्वी का मन स्फुरित हो उठे, सारी धरती हरी मखमली चादर से आच्छादित हो जाय और ऐसे समय में, मै अपने प्रिय पति सम्राट् श्रेणिक के साथ हाथी पर बैठकर वैभारगिरि का भ्रमण करूँ । यह आकाक्षा रानी को हुई, किन्तु वर्षाकाल तो था नही । सारा आकाश निरभ्र और नीला था । कही वादल का एक टुकड़ा भी दिखाई नही देता था । रानी की इच्छा पूरी हो तो कैसे ? निदान अपने मन की इच्छा को मन मे ही दबाये रानी दिन - दिन दुर्बल होने लगी। उसकी यह स्थिति जब एक प्रिय दासी से देखी न गई तो उसने जाकर सम्राट् को सारी बात कह सुनाई । सुनकर वे भी चिन्ता मे पड गये । किन्तु उपाय क्या था ? उपाय कोई नही था । आशा की कोई किरण कही दिखाई नही देती थी । उदास राजा राज्य सभा मे पहुँचा । चिन्ता का कारण जानकर राजसभा भी मूक होकर बैठ गई । उसी समय राजपुत्र अभयकुमार ने राजसभा मे प्रवेश किया । वह सम्राट् श्रेणिक और रानी नन्दा से उत्पन्न अत्यन्त मेधावी और पराक्रमी राजपुत्र था । उसकी तीव्र और त्वरित बुद्धि वेजोड थी । उसने एक ही दृष्टि मे देख लिया कि आज राजा सहित सारी राजसभा किसी गम्भीर चिन्ता मे निमग्न है। पूछा "पिताजी | क्या कारण है कि आज आप उदास प्रतीत होते हे ? इस पृथ्वी पर ऐसी कौनसी वात उत्पन्न हो गई जो प्रतापी सम्राट् श्रेणिक को भी उदास और चिन्तित कर दे ?" श्रेणिक जानते थे कि अभयकुमार वीर है, बुद्धिमान है, समर्थ है ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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