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________________ भिक्षु बनूंगा १६७ बाल-मुनि की काल्पनिक पात्र नोका जल की सतह पर थिरक - थिरक कर चल पडी । 1 तिर ।' और वाल मुनि मग्न होकर गाने लगे- 'तिर मेरी नँया तिर रे स्थविरो ने देखा और साधु-मर्यादा के विपरीत इस आचरण से वे रुष्ट हुए । उनका रोप उनके मुख पर प्रकट हो रहा था । अतिमुक्त श्रमण ने स्थविरो का यह रोप देखा । वाल-सस्कार विलीन हो गए । विवेक पुन स्वस्थान पर आ गया । अपनी भूल पर अतिमुक्त ने पश्चात्ताप किया और आलोचना द्वारा उनका हृदय फिर से पवित्र हो गया । स्थविरो ने भगवान के समीप पहुँच कर प्रश्न किया “भगवन् । यह लघु साधक अतिमुक्त कितने भवो मे मुक्त होगा ?" भगवान सर्वज्ञ थे । उन्होने शान्त भाव से बताया उस पर क्रोध और "अतिमुक्त इसी भव मे मुक्त होगा । वह स्वच्छ है, पावन है, विमल है । छोटा समझकर उसकी उपेक्षा न करो, स्थविरो। रोप न करो । अतिमुक्त देह से लघु है, किन्तु विचारो से आत्मा निर्विकार है । वह पूज्य और आदरणीय है । उसकी सेवा करो ।" महान् है । उसकी तुम से बने उतनी भगवान के वचनो मे अचल श्रद्धा रखने वाले स्थविर शान्त और मौन होकर उनकी वाणी सुन रहे थे । भगवान ने और भी स्पष्ट करते हुए कहा- " स्थविरो | तुम साधना की भूमि मे हो । इस भूमि मे देह की पूजा नही की जाती, गुणों की ही पूजा की जाती है । यह अतिमुक्त अवस्था से वालक है, देह से छोटा है । किन्तु विचार इसके गम्भीर और उच्च हे । सागर से भी गम्भीर और हिमालय से भी उच्च । अत स्थविरो । उसकी उपेक्षा न करो, उस पर रोप न करो । वने उतनी उसकी सेवा करो ।” स्थविरो ने भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य किया । ओर अवस्था मे छोटा-सा साधक अतिमुक्त अब पूरी लगन, एकान्त
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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