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भिक्षु बनूंगा
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बाल-मुनि की काल्पनिक पात्र नोका जल की सतह पर थिरक - थिरक कर चल पडी ।
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तिर ।'
और वाल मुनि मग्न होकर गाने लगे- 'तिर मेरी नँया तिर रे
स्थविरो ने देखा और साधु-मर्यादा के विपरीत इस आचरण से वे रुष्ट हुए । उनका रोप उनके मुख पर प्रकट हो रहा था ।
अतिमुक्त श्रमण ने स्थविरो का यह रोप देखा । वाल-सस्कार विलीन हो गए । विवेक पुन स्वस्थान पर आ गया । अपनी भूल पर अतिमुक्त ने पश्चात्ताप किया और आलोचना द्वारा उनका हृदय फिर से पवित्र हो गया । स्थविरो ने भगवान के समीप पहुँच कर प्रश्न किया
“भगवन् । यह लघु साधक अतिमुक्त कितने भवो मे मुक्त होगा ?" भगवान सर्वज्ञ थे । उन्होने शान्त भाव से बताया
उस पर क्रोध और
"अतिमुक्त इसी भव मे मुक्त होगा । वह स्वच्छ है, पावन है, विमल है । छोटा समझकर उसकी उपेक्षा न करो, स्थविरो। रोप न करो । अतिमुक्त देह से लघु है, किन्तु विचारो से आत्मा निर्विकार है । वह पूज्य और आदरणीय है । उसकी सेवा करो ।"
महान् है । उसकी तुम से बने उतनी
भगवान के वचनो मे अचल श्रद्धा रखने वाले स्थविर शान्त और मौन होकर उनकी वाणी सुन रहे थे । भगवान ने और भी स्पष्ट करते हुए कहा-
" स्थविरो | तुम साधना की भूमि मे हो । इस भूमि मे देह की पूजा नही की जाती, गुणों की ही पूजा की जाती है । यह अतिमुक्त अवस्था से वालक है, देह से छोटा है । किन्तु विचार इसके गम्भीर और उच्च हे । सागर से भी गम्भीर और हिमालय से भी उच्च । अत स्थविरो । उसकी उपेक्षा न करो, उस पर रोप न करो । वने उतनी उसकी सेवा करो ।”
स्थविरो ने भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य किया ।
ओर अवस्था मे छोटा-सा साधक अतिमुक्त अब पूरी लगन, एकान्त