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________________ १६६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं माता-पिता अब थोडा चाके । कुछ चिन्तित भी हुए। उसे समझाते हुए कहने लगे ___"बेटा । तू कैसी बचपने की बात करता है। भिक्षु बनना कोई बच्चो का खेल हे ? यह तो बडा कठिन कार्य हे, वत्स | जो अगारो पर चल सकता हो, वही भिक्षु बन सकता है । जाओ, तुम तो खेलो-कूदो ।” किन्तु उस तेजस्वी ओर निर्भय बालक को बहलाना अब किसी के वश की बात नही थी। उसका तो एक ही संकल्प और एक ही कथन था-मै भिक्षु बनूंगा। अपने माता-पिता की सारी वातो को सुनकर उसने यही कहा“पूज्य । मेरा निश्चय अटल है। अपनी शक्ति को मै जान चुका हूँ। मैं अगारो पर चल सकता हूँ । असिधारा से खेल सकता हूँ। कोई भी भय मुझे अपने मार्ग से डिगा नही सकता-मैं भिक्षु बनूंगा।" उस अडिग संकल्पवान आत्मा के समक्ष किसी को कुछ भी न चली। माता-पिता ने विवश होकर उसे मुनि-जीवन मे जाने की आज्ञा दी, किन्तु उससे पूर्व एक बार सिंहासन पर आसीन होने के लिए आग्रह किया। ___अतिमुक्त ने अपने पूज्य माता-पिता के इस आग्रह को निर्विकार भाव से स्वीकार किया और उसके बाद भगवान के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। वाल-मुनि अतिमुक्त भगवान के साथ साधना करते हुए विचरण करने लगा । गम्भीरता और विवेक उसमे जन्मजात थे। अब उसके ये गुण और भी विकसित होने लगे। फिर भी वालक तो वालक ही है । अवस्था का प्रभाव तो मनुष्य पर पडता ही है । एक-वार वा काल था। स्थविरो के साथ अतिमुक्त श्रमण भी विहार भूमि को निकला था। स्थविर इधर-उधर बिखर गए थे। अतिमुक्त ने देखा कि पानी कल-कल, छल-छल करता बह रहा है। बचपन के सस्कार उभर आए और उसने मिट्टी की पाल बाँधकर पानी को रोक लिया । छोटा-सा तालाव बन गया। अपना पान उसने उस जल मे छोड दिया आर नौका की कल्पना करता हुआ प्रसन्नता से झूम उठा।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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