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मै भिक्षु बनूंगा ।
" वत्स | मैं भिक्षा लेने के लिए इन घरो मे जाता हूँ ।"
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बालक ने सोचा कि मुनि को बड़ा कष्ट हो रहा है, घर-घर में घूमना पड रहा है । वह तुरन्त बोला
" आप हमारे घर चलिए । मेरो माता आपको खूब भोजन देगी ।" गौतम इस बालक के स्नेह और भक्ति के आगे विवश से हो गए। वालक ने उनकी अँगुली पकड़ ली और ले चला अपने घर की ओर ।
वह वालक पोलासपुर का राजकुमार अतिमुक्त था । जब वह गौतम को लेकर महल मे पहुँचा तो रानी वडी प्रसन्न हुई । उसने गोतम को भिक्षा प्रदान की । उन्होने अपनी मर्यादा के अनुसार भिक्षा ली और बालक अतिमुक्त के उत्तम सस्कारो से प्रसन्न हो लौटने लगे। तभी अतिमुक्त ने पूछा
"मुनिवर । अब आप कहाँ जा रहे हे ?"
गौतम ने जब बताया कि वे नगर से बाहर अपने धर्मगुरु के पास जा रहे है तो अतिमुक्त भी उनके दर्शन करने के लिए उतावला हो गया । उसके बाल मन मे विचार उठ रहा था - ऐसे भव्य मुनिराज के धर्मगुरु कैसे महान् होगे ? उनके दर्शन तो अवश्य ही करने चाहिए। उसने कहा-"मुझे उनके दर्शन करने ले चलिए । "
अतिमुक्त गौतम के साथ प्रभु के पास आया । गौतम ने प्रभु को वन्दन किया । अतिमुक्त ने भी उसी प्रकार भक्तिभाव से प्रभु को वन्दन किया । प्रभु ने उसे अपनी मधुर वाणी मे उपदेश दिया ।
अतिमुक्त के जीवन की दिशा मे एक परिवर्तन का आरम्भ तो गणधर गौतम के दर्शन के साथ ही हो चुका था, अब प्रभु का उपदेश सुनकर वह पूर्णता को पहुँच गया । अतिमुक्त ने अटल सकल्प कर लिया कि वह भी वैसा ही बनेगा जैसे गौतम है, जैसे प्रभु है ।
घर आकर उसने अपना निश्चय अपने माता-पिता को कह सुनाया - मैं भिक्षु वनूँगा ।
माता-पिता ने इसे वालक के मन की एक क्षणिक - मौज समझा । कोई सामान्य-सा उत्तर देकर वे उसे खेलने-कूदने के लिए कहने लगे । किन्तु अतिमुक्त अपनी बात पर अड़ा रहा। उसने कहा- मैं तो भिक्षु वनूंगा ।