________________
विष-वृक्ष
२०६ वस्तुएं इकट्ठी की, अपने कौटुम्बिक पुरुपो से विचार-विमर्श किया और सबकी सम्मति लेकर नगर मे घोपणा करा दी कि धन्य सार्थवाह व्यापार के निमित्त अहिच्छत्र नगरी को जा रहा है, जो भी व्यक्ति उसके साथ जाना चाहे, जा सकता है । यात्रा के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ-वस्त्र, भोजन, औपधि इत्यादि यात्रियो को सार्थवाह के द्वारा प्रदान की जायेगी।
यह घोषणा सुनकर बहुत से लोग जो कि अहिच्छत्र नगरी को जाना चाहते थे किन्तु उपयुक्त समय और सुविधा की प्रतीक्षा मे ठहरे हुए थे, धन्य सार्थवाह के समीप आ गये। किसी के पास वस्त्र नही थे, किसी के पास जूते । धन्य सार्थवाह ने सभी लोगो को सारी आवश्यक सामग्री दे दी। उस जमाने में समर्थ लोग इसी प्रकार अन्य लोगो की निस्वार्थ सेवा किया करते थे।
शुभ मुहूर्त मे यात्रियो का काफिला उमग के साथ चल पडा। मार्ग लम्बा था। यातायात के साधन प्राचीनकाल मे इतने तीव्रगामी नही थे जितने कि आज है । अत यात्रा मे समय अधिक लगा करता था। अनेक स्थानों पर बीच-बीच मे पडाव डालने पडते थे। मार्ग मे कही नदियाँ पडती थी, कही ऊँचे-ऊँचे पर्वत, कही लम्बे-चौड़े मैदान और कही घनघोर जगल । इन सवको पार करते हुए यात्री वडी कठिनाई से बहुत समय मे अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच पाते थे।
__ धन्य सार्थवाह का काफिला धीरे-धीरे मजिल-दर-मजिल आगे बढता जा रहा था। चलते-चलते उपयुक्त स्थान देखकर पडाव कर भोजन और विश्राम करते हुए वह काफिला अग देश के बीच मे से गुजरता हुआ देश की सीमा पर जा पहुंचा।
देश की सीमा से आगे पहुँचकर धन्य सार्थवाह ने फिर पडाव डाला। उस स्थान से आगे घनघोर जगल था। उसमे बहुत प्रकार के वृक्ष थे। कुछ तो ऐसे वृक्ष थे जिन्हे अनेक मनुष्यो ने पहले कभी देखा ही नही था। उनमे से कुछ वृक्ष ऐसे भी थे जो कि विषैले थे। धन्य सार्थवाह अनेक यात्राएँ कर चुका था। अनुभवी और ज्ञानी या । इस मार्ग से भी वह कई वार गुजर चुका था। अत वह उस जगल तथा वहाँ के वृक्षो से भली-भांति परिचित या। अपने साथ के अन्य यात्रियो को सावधान करने के लिए उसने सबसे कहा