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________________ २६ वज्रादपि कठोराणि आचार्य अर्हन्मित्र एक बार अपने शिष्यवर्ग सहित तगरा नगरी में पधारे। उनके धर्मोपदेश को सुनकर उस नगरी के अनेक व्यक्ति धर्म की उपासना की ओर उन्मुख हुए । वणिकदत्त नामक एक गृहस्थ को भी वैराग्य भावना उदित हुई और वह अपनी पत्नी भद्रा तथा पुत्र अरणक के साथ प्रव्रज्या ग्रहण कर आचार्य के साथ विचरण करने लगा । माता और पिता को अपने पुत्र से सहज ही स्नेह होता है | मुनि वन जाने के बाद भी वणिकदत्त मुनि के हृदय से इस सासारिक सम्बन्ध की मोहममता पूरी तरह से दूर नही हुई । वह अरणक के लिए भिक्षा लेने स्वय ही जाता, यह सोचकर कि उसके कोमल शरीर को कष्ट न हो । किन्तु इसका परिणाम अरणक के लिए हितकारी नही हुआ। वह तप न सका । जैसा कोमल ओर शिथिल था, वैसा ही रह गया। जब वणिकदत्त मुनिका देहावसान हो गया तब कुछ दिन तक तो अन्य साथी भिक्षु जरणक के लिए भिक्षा लाते रहे, किन्तु बाद में स्वयं उसे ही मिक्षा लेने जाना पडता । एक दिन, ग्रीष्म ऋतु में, अरणक भिक्षा लेने नगर में गया। गर्मी बहुत अधिक थी । धरती जल रही थी। हवा आग लगाती चल रही थी। नरक को अनी कठोर जीवन का अभ्यान पता नहीं था । बककर जार मकान की छाया मे चा भयकर ग्रीष्म ने बेचैन होकर वह एक स्थान पर हो गया । १९६
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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