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________________ २२८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ सी श्राविकाओ के, बहुत-से अन्य तीथिको एव बहुत-से गृहस्थो के दुर्वचनो को मम्यक् प्रकार महन नहीं करता, उस पुरुप को मैने सर्वविराधक कहा है। "ओर अन्त मे, जब द्वीप सम्बन्धी भी और समुद्र सम्बन्धी भी ईपत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात बहती है तब मभी दाबद्रव वृक्ष पत्रित, पुप्पित, फलित रहक र सुशोभित रहते है। "हे गौतम । इसी प्रकार जो साधु या साध्वी बहुत-से श्रमणो के, बहुत-मी श्रमणियो के, बहुत-से श्रावको के, बहुत-सी श्राविकाओ के, बहुत-से अन्य तीथिको के और बहुत-से गृहस्थो के अर्थात् सबके दुर्वचन सम्यक् प्रकार सहन करता है, उस पुरुप को मैने सर्वाराधक कहा है।" ओर भी स्पष्ट करते हुए भगवान ने कहा___ "अर्थ यह है गौतम । कि मैने जो दावद्रव वृक्ष की उपमा दी, वह मायु के लिए है। ऐसा मानो कि साधु दावद्रव वृक्ष के समान है। इसी प्रकार द्वीप की वायु के समान स्वपक्षी साधु आदि के वचन, समुद्री वायु के समान अन्य तीथिको के वचन और पुप्प-फल आदि के समान मोक्षमार्ग की आरावना समझना चाहिए। पुप्प आदि के नाश का अर्थ हे मोक्षमार्ग की विराधना। ___मने जैसे द्वीप की वायु के ससर्ग से वृक्षो की समृद्धि बताई, उसी प्रकार नाधर्मी के दुर्वचन महने से मोक्षमार्ग की आराधना ओर दुर्वचन न मन से विराधना समझना चाहिए। अन्य तीथिको के दुर्वचन न महने से मोक्षमार्ग की अल्प विराधना होती है। जैसे समुद्री वायु से पुप्प आदि की योडी ममृद्धि और बहुत असमृद्धि बताई, उसी प्रकार पर-तीथिको के दुर्वचन नहन रने और स्वपक्ष के महन न करने से थोडी आराधना ओर बहुत विरावना होती है और दोनो के दुर्वचन सहन न करके क्रोध आदि करने ने नर्वथा विगधना और सहन करने से सर्वथा आराधना होती है । अत अभिप्राय यह है कि हे गौतम साधु को सभी के दुर्वचन माभाव ने नहन करना चाहिए । क्षमा माधु का मवमे बडा आधार है । मोक्ष की नागपना की वह एकमात्र कजी है। क्षमाभाव मोक्ष की मजिल का सबने नीषा गस्ता है।"
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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