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________________ पछतावा ११५ कर सके । वे अपनी रक्षा के लिए अपने नाना चेटक के पास चले गए । हाथी और हार साथ लेते गए। चेटक वैशाली गणतन्त्र के अधिपति थे । कोणिक और हल्ल - विहल्ल की माता चेलना उनकी पुत्री ही थी । कोणिक ने जब सुना कि हल्ल और विहल्ल ने उसकी माँग को ठुकरा दिया है और चेटक के पास चले गए है तो उसे क्रोध चढ गया और हठ ने उसके हृदय मे जड जमा ली - अब तो चाहे जो हो, मैं हाथी और हार लेकर ही रहूंगा । उसने चेटक पर चढाई कर दी । सेनाएँ रणभूमि में आमने-सामने अड गई । महा भयानक युद्ध हुआ । रथ से रथ, हाथियो से हाथी, घोडो से घोडे और पैदल से पैदल भिड गए। खून की नदियाँ वह गई । दिशाएँ घायल सैनिको की चीत्कारो और कराहो से कॉप गईं । चेटक ने भीषण मग्राम किया। अपने अचूक वाणो से उसने कालीकुमार आदि दस कुमारो को बीध डाला । यह देखकर कोणिक अत्यन्त क्रुद्ध होकर विकट संग्राम करने लगा । उसने महाशिलाकण्टक और रथ- मूसल व्यूह की रचना कर अपनी सारी शक्ति युद्ध मे झोक दी । अन्तत चेटक को पराजित होना पडा और कोणिक जीत गया । किन्तु कोणिक की यह खूनी विजय पराजय से कुछ भी अधिक सिद्ध न हुई । उसके हाथ कुछ भी न लगा । न उसे हार मिला, न हाथी, और न ही हल्ल - विहल्ल | वंक हार को देव ले गया। हाथी अग्नि को अर्पित कर दिया गया, और हल्ल तथा विहल्ल भगवान महावीर की शरण मे जाकर दीक्षित होकर शान्त हृदय से आत्म-साधना में लीन हो गए । चेटक भी युद्ध मे अपने प्राण त्याग चुके थे । कोणिक सोचता और पछताता ही रह गया -क्यो इतना भीषण नर- महार किया गया ? इससे किसी को भी क्या लाभ हुआ ? - निश्यावलिआसुत्त
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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