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________________ कैसा जन्म, कैसी १३५ किन्तु इस बार उसे रोने-धोने, चीखने की बडी ही दर्दनाक आवाजे सुनाई दी । आनन्द से झूमता उसका हृदय एकदम धक से रह गया । अनजाने ही उसकी आँखो से अश्रुधार बह निकली । वह भारी हृदय लेकर फिर अपनी माता के पास पहुँचा और पूछने लगा “माँ | ये लोग रो क्यो रहे है ? मुझे अच्छा नही लगता । मुझे दुख होता है ।" ? मृत्यु "दुख की तो बात ही है बेटा । जो पुत्र उत्पन्न हुआ था न, वह चला गया । इसीलिए सब लोग दुखी होकर रो रहे हैं ।" - माता ने समझाया । किन्तु वालक की जिज्ञासा और भी आगे वढी । उसने पूछा"वह लडका जो पैदा हुआ था कहाँ चला गया, माँ ? भारी हृदय से माँ ने बताया -- " वह मर गया, बेटा । अब वह कभी लोटकर नही आएगा ।" कुछ क्षण कुमार चुपचाप अपनी माँ के उदास चेहरे को देखता ओर विचार करता रहा | फिर बोला "माँ ! क्या मैं भी मर जाऊँगा ?" - माता ने झट से उसके मुख पर हाथ रख दिया और कहा - " ऐसी वात नही करते बेटा ! जा, तू अपना खेल ।” "नही माँ ' तू मुझे बता । मैं जाने विना मानूंगा नही । क्या मैं भी मर जाऊँगा ?" माता जानती थी कि बालक हठी है । एक बार जो धुन इसे लगी सो लगी । सहज ही मानने वाला यह नही है । अत विवश होकर बोली"हॉ मेरे बेटे । सत्य यही है कि जो भी जन्म लेता है, उसे एक न एक दिन मरना ही पडता है ।" कुमार फिर गभीर रहा। और फिर उसने प्रश्न किया "माँ | क्या कोई ऐसा उपाय नही कि मैं मरु नही, और तुम्हे रोना भी न पड़े?" भला कोई माता अपने ही पुत्र को, प्रश्नों का क्या उत्तर दे ? कहाँ तक उत्तर सकी दे अपने कलेजे के टुकडे को इन वह बेचारी इतना ही कह ?
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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