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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ माता प्रसन्न भी होती और खीझ भी उठती। कह देती-"चल भाग यहाँ से । सारा दिन तेरे प्रश्नो का उत्तर ही देती रहूँ तो बस फिर हो गया।"
बालक फिर खेल-कूद मे लग जाता और फिर दोडा-दौडा आता"माँ ! .... "
एक दिन कुमार अपने प्रासाद की छत पर खडा प्रकृति की सुपमा निहार रहा था और नीचे नगर मे जाग रहे जीवन को देख रहा था। प्रात काल का मन्द समीरण शरीर मे सुख और आनन्द की पुलक उत्पन्न करता था । सूर्य की किरणें मन्दिरो और प्रासादो के स्वर्ण-कलशो को अद्भुत शोभा प्रदान कर रही थी। रंगीन मेघी के छोटे-छोटे टुकडे इधर-उधर आकाश मे विखरे थे। पक्षी आनन्द से कलरव करते दूर दिशाओ की ओर उडे चले जा रहे थे।
उसी समय कही से संगीत के सुमधुर स्वर आकर कुमार के कानो से टकराए । उस प्रातःकाल की मंगल वेला मे वे मंगल गीत नैसर्गिक प्रतीत होते थे। सुनकर आत्मा मे ऐसा अनुभव होता था मानो विश्व मे सर्वत्र मंगल ही मंगल है। आनन्द की रसधार मानो आकाश से सारी पृथ्वी पर अवाध रूप से झर रही है।
कुमार वडा आनन्दित हुआ। उसके मन मे जिनासा भी जागी यह कैसे गीत है ? कौन गा रहा है ? क्यो गाए जा रहे है ये गीत ?
दौड़ा-दौडा गया वह अपनी माँ के पास और लगा दी प्रश्नो की झड़ी
“माँ ! ये गीत कौन गा रहा है ? क्यो गा रहा है ?"
माता ने शान्ति से बताया--"पडौस मे पुत्र उत्पन्न हुआ है। सब प्रसन्न है । इसलिए ये गीत गाए जा रहे है ।” ।
“अच्छा | पुत्र उत्पन्न होता है तो गीत गाए जाते हे ? मॉ, तब तो मैं उत्पन्न हुआ तव भी ऐसे ही गीत गाए गए होगे ?” ।
"अरे हॉ, ऐसे ही क्या, तू उत्पन्न हुआ तब तो और भी अधिक आनन्द मनाया गया था। खूब उत्सव हुआ था । अव चल भाग यहाँ से, मुझे काम करने दे।"
__ बालक खेलता-कूदता फिर छत पर जा पहुंचा।